आउटलुक का सेक्स संस्करण

सेक्स पर सर्वे आया है। प्रिंट में है। आउटलुक पत्रिका में। तब तो यह माना ही जाए कि गंभीर अटेम्प्ट है। समाज में सेक्स को समझने के लिए। कौन सा तबका कितने बजे किन किन से, किस करवट सेक्स करता है। कुछ तस्वीरें भी हैं, सेक्स को समझाने के लिए। इन सेक्स पूर्व प्रतीकात्मक तस्वीरों से सेक्स हरकतों की झांकी मिलती है। और भी पत्रिकाएं और अखबार वाले सेक्स सर्वे कराते हैं। सेक्स सर्वे पत्रकारिता का पार्ट है। लेकिन क्या यह सिर्फ प्रिंट वालों का पार्ट है?

आउटलुक में गंभीरता के नाम पर क्या है। सर्वे और तस्वीरों के बाद एक डॉक्टर का इंटरव्यू है। जिन्हें पढ़कर सहज बुद्धि और सहज होती है कि समाज में लोग अब ओपन हो रहे हैं। सेक्स गोपन नहीं हैं। सब ओपन है। तो क्या इससे समाज को समझने का प्रयास पूरा हो जाता है?बीमार हैं तो जाएंगे कहां? डाक्टर के पास ही न?

यही सर्वे अगर हम टीवी पर कर दें तो क्या होगा? कोहराम मचा देंगे कि घर घर में पहुंच रहा है। सर्वे के नाम पर जो तस्वीरें हैं उनसे गंदगी फैल रही है। टीवी पत्रकारिता पतन में चली गई है। अगर टीवी पर कोई वॉयस ओवर यह सवाल पढ़ रहा होता कि सुबह के वक्त कितनी फीसदी स्त्रियां कितने फीसदी पुरुषों के ऊपर होती हैं। तो आलोचक लेखक लिखते कि चीख चीख कर बोल रहा था। जैसे लिखे हुए शब्द चीखते नहीं हैं।

मुझे आउटलुक के सर्वे में कुछ भी आपत्तिजनक नहीं लगा। किसी ने कहा कि अंग्रेजी में ये चीजे छपती हैं तो वैसे भी आपत्तिजनक नहीं लगतीं। इसकी जांच कर रहा हूं। लिखने का मकसद इतना ही है कि यह समझा जाए कि क्या टीवी और प्रिंट के लिए आलोचना के मानदंड(मुझे यह पूरा लफंदर शब्द लगता है)अलग होते हैं?मानदंड पाखंड होते जा रहे हैं? इसका मतलब यह भी नहीं कि टीवी की बुराइयों को इग्नोर कर रहा हूं।

वैसे आउटलुक के सेक्स सर्वे में गंभीर भी कुछ नहीं था। यह समझने की कोशिश कम थी कि सेक्स के ज़रिये स्त्री-पुरुष संबंध में कोई बदलाव आ रहा है या नहीं। क्या कोई सामाजिक वर्जनाएं टूट कर स्त्रियों को आज़ादी दे रही हैं या वही पुरुषवादी नैतिकता हावी है। दिन के किस वक्त सेक्स,और कितनी बार सेक्स। सेक्स की बारंबारता में कमी एक मेडिकल समस्या है। अव्वल तो इसके कारण में आतंकवाद से जुड़ी चिंताएं भी जोड़ दी गई हैं।

हंसी आ रही है कि आतंकवाद से चिंतित होकर लोगों की सेक्स बारंबारता( फ्रिक्वेंसी) कम हो गई है। मंदी में लोग सेक्स कम करते हैं। अजीब अजीब किस्म के कारण हैं। आतंकवादियों ने हमारी सेक्स लाइफ को भी डिस्टर्ब कर दिया है। धत्त तेरी की।

बहरहाल मुझे जवाब नहीं मिला कि कोई न्यूज़ चैनल सेक्स सर्वे करे ( वैसे करते ही हैं) तो क्या उसकी आलोचना नहीं होती? होती तो किस प्रकार की होती?

28 comments:

prabhat gopal said...

रविश सर
इधर आप पत्रकारिता के मुद्दे पर लगातार लिख रहे हैं, इसके लिए आपको बधाई। पत्रकारिता के नाम पर छायी धुंध को साफ करने के लिए ये बहस जरूरी है। अब जहां तक आउटलुक पत्रिका द्वारा एक खास विषयवस्तु पर अंक निकालने की बात है, तो उसे आप पूरी प्रिंट पत्रकारिता का चेहरा नहीं बता सकते हैं। अखबार और पत्रिका की पत्रकारिता में जमीन-आसमान का फकॆ रहता है। अखबार उतने खुले रूप में इन विषयों को लेकर नहीं लिखता। सूचनाएं देता है और शेयर करता है। इस हलचल के समय में यदि आउटलुक सेक्स जैसे विषय पर अंक ला रहा है, तो यह शायद बाजार में खुद को स्थापित करने की उसकी जद्दोजहद का एक हिस्सा हो। जहां तक टीवी की बात है, तो टीवी लोग परिवार या किसी अन्य दो-तीन मित्रों, सदस्यों के साथ देख रहे होते हैं। उसमें वह भी अगर प्राइम टाइम में इस विषय वस्तु पर चैनल में खुली बहस या चरचा की जाये, तो एक असमंजस की स्थिति उत्पन्न हो जायेगी। वैसे में स्क्रीन के सामने उपस्थित व्यक्ति खास चैनल को बदलने में ही खैर समझेगा। हमारी भारतीय संस्कृति आज भी उतने खुलेपन के दौर में नहीं पहुंची है, जितना हम मान रहे हैं। जहां तक इलेक्ट्रानिक मीडिया की बात है, तो निश्चित रूप से ये प्रिंट की तुलना में ज्यादा असरदार और पहुंचवाला है। इसके साथ ही प्रिंट की तुलना में इसका उत्तरदायित्व ज्यादा बढ़ जाता है। प्रिंट मीडिया (अखबार, पत्रिका नहीं) पहले ही काफी धक्के झेलकर अपनी प्रौढ़ावास्था में पहुंच चुकी है। इसलिए उसके बारे में चिंता नहीं कर इलेक्ट्रानिक मीडिया के वतॆमान स्वरूप को बेहतर बनाने की पहल होनी चाहिए। वैसै व्यक्तिगत रूप से वतॆमान समय में एनडीटीवी को मैं सबसे बेहतर न्यूज चैनल मानता हूं।

Unknown said...

इलेक्ट्रानिक मीडिया की आलोचना से बुरा मान गये क्या? लेकिन खुद ही सोचिये कि NDTV या आज तक को कितने लोग देखते हैं और आऊटलुक कितने लोग पढ़ते हैं? यही पैमाना है आलोचना का… घरों में वक्त-बेवक्त धमकने वाले मीडिया चैनलों से अखबारों की तुलना मत कीजिये… अखबार या पत्रिका पूरा परिवार एक साथ बैठकर नहीं पढ़ता…

रवि रतलामी said...

विनोद मेहता (संपादक, आउटलुक)ने एक बार स्वीकारा था कि ऐसे सेक्स सर्वे पत्रिका को बेचने और उसकी बिक्री बढ़ाने के सबसे बढ़िया नुस्ख़े होते हैं. हिन्दी आउटलुक हमेशा घाटा देती रही है, और ऐसे संस्करणों से उस नुकसान की थोड़ी बहुत भरपाई की कोशिश की जाती है.
लिहाजा ऐसे सर्वे, जिनका मुख्यध्येय ही जुदा हो, क्या परिणाम दे सकते हैं? और किसका भला हो सकता है?

संजय बेंगाणी said...

लिखे हुए शब्द चीखते नहीं हैं

और यह सत्य नहीं है?


हम मीडिया की आलोचना करते है, क्योंकि उससे हमें आशाएं है. क्या यह गलत है?

डॉ .अनुराग said...

इसमे नया कुछ नही है...लगता है तीन महीने पहले इंडिया टुडे के सर्वे आपकी निगाह में नही पड़े .इससे पहले भी ये सर्वे लगातार होते रहे है.....जाहिर है सब बाजार का दबाव है.

Astrologer Sidharth said...

मैंने आउटलुक और सैक्‍स देखा तो इस ब्‍लॉग पर चला आया।
इससे मैं यही कह सकता हूं कि आउटलुक एक गंभीर पत्रिका मानी जाती है और सैक्‍स अब भी खूब बिक रहा है।

:)

आपका चिंतन उपयुक्‍त है।

ss said...
This comment has been removed by the author.
ss said...

एक अग्रणी चैनल पर इस तरह के सर्वे मैं कम से कम 2 बार देख चुका हुँ। हाँ content जरुर सतही था। बाकी सुरेश जी की बात से सहमत हुँ। TV पुरा परिवार देखता है।

Deepak Chaturvedi said...

sahi kaha aap ne magar jo dikhata hai bikta ka falsafa hai kay kare?

विधुल्लता said...

भाई रविश जी ,अब तो बे असर होने लगें है ऐसे सर्वे...बाजार मैं हर साल इंडिया टू डे से लेकर दूसरी पत्रिकाएं ऐसे ही सर्वे के जाल मैं उलझी रहती है आम आदमी इतनी मुश्किलों मैं है की उसे तो फुरसत ही नही...अभी दो दिन पहले ही रद्दी वाले के लिए निकाली तो इंडिया टुडे डे का सेक्स सर्वे अंक था खुल भी नही पाया था...इतना जरूर कहूँगी देखने और पढने मैं फर्क है ...बाजार की ताकतें सर पर हैं

Ajeet Singh said...

रबिश सर ऐसा नहीं है की सिर्फ आउटलुक ही सेक्स सर्वे कर रहा है. इंडिया टुडे भी ये सर्वे करता है लेकिन ये सिर्फ एक Bussiness Strategy है और कुछ नहीं. ये दोनों मैगजीन हर तीन-चार महीने पे ऐसे विशेषांक निकालते रहते हैं. अब इस बात का क्या मतलब है की आतंकवाद और आर्थिक मंदी ने सेक्स को कम कर दिया है. सेक्स तो शरीर की आवश्यकता है जो किसी और कारन से प्रभावित नहीं होती है.

Aadarsh Rathore said...

प्रभु, ये सेक्स सर्वे नहीं सेक्स सर्व किया जा रहा है। ये सर्वे तो वास्तव में होता ही नहीं। चार लोग ऑफिस में बैठकर चटपटे सवाल तैयार करते हैं औपचारिकता के तौर पर प्रतिशतता में उसके जवाब लिख के छाप देते हैं। दो चार कामुक चित्र जोड़े, एक डॉक्टर की राय जिसमें नया कुछ नहीं, वही घिसी-पिटी बातें और सलाह। बस हो गया मसाला तैयार। आपने जायज़ सवाल उठाए हैं। पिछले कई सालों से आउटलुक और इंडिया टुडे इसी तरह के संस्करण निकाल रही है। इसका उद्देश्य न तो जानकारी देना है और न ही कुछ नए तथ्य सामने रखना। प्रिंट और टीपी के प्रति वाकई दोहरे मापदंड मनाए जाते हैं। ये सब तो कुछ नहीं, इन मैगज़ीन्स से ज्यादा कोहराम तो समाचार पत्रों ने मचा रखा है।
अखबारों की हकीकत के लिए इसे एक बार इसे अवश्य पढ़ कर देखें, ये रहा लिंक
http://pyala.blogspot.com/2008/12/blog-post_11.html?showComment=1229130120000

Kajal Kumar's Cartoons काजल कुमार के कार्टून said...

अंग्रेज़ी और इतर भाषी पत्रकारिता में इतना ही अन्तर नज़र आता है कि अगर कम कपड़े पहने बड़े लोग पार्टी बाज़ी करते हैं तो पेज ३ की ख़बर बनती है वरना छिछोरापन. यही बात सेक्स सर्वे की है, क्योंकि अंग्रेज़ी में इसे पीतपत्रकारिता नहीं मानने का रिवाज़ जो चल निकला है.

दिनेशराय द्विवेदी said...

आप ने आउटलुक का और प्रचार कर दिया। कुछ बिक्री और बढ़ जाएगी।

महेन said...

इस तरह के सर्वे के पीछे सच जो भी हो मगर यह तय है कि इस तरह के सर्वे से पहले अपने यहाँ सेक्स को हजम करना अभी लोगों को सीखना बाकी है. कौन किस एंगल में दिन के किस समय सेक्स करता है यह तो बाद का मुद्दा है. हाँ अगर यह सर्वे अंग्रेज़ी के संस्करण का सीधा सीधा अनुवाद है तो यह माना जा सकता है कि सर्वे तो creamy layer of the society के लिए किया गया था और उठाकर हिन्दी में भी परोस दिया.

राजू सजवान said...

ravish ji
Ek budha Ganga kay liyai bukha mar raha hai. Hindu Mahasabha mai baitha hai. plz usey cover karvayai.

डा0 हेमंत कुमार ♠ Dr Hemant Kumar said...

Raveesh ji,
Hamare desh men kya aj patrakarita ka vo star rah gaya hai jo aaj se 15 sal pahle tha?chahe vo danik akhbar ho,koi saptahik ho,masik patrika...ya fir electronik chainal ho.jab print vale apne sarkulation ko badhane ke liye sare hathkande apna sakte hain,to electronik meediya valon ko bhee apnee t r p ka dhyan rakhna chahiye.main to print aur electronik donon ke liye kam karta hoon ...to donon ke hathkandon ko dekhta rahta hoon.Cahliye..is bahas ko age badhaye chaliye ..koi nateeja to ayega hee.
Hemant Kumar

Arvind Mishra said...

अब सेक्स बिक रहा रहा है धडल्ले और पूरी उद्धतता के साथ -दृश्य मीडिया पर भीदिखाईये कोई हो हल्ला नहीं मचेगा ! अब ये दिल मांगे मोर -भारत बदल रहा है .

Unknown said...

आपकी नज़र पारखी है, इसमें कोई संदेह नही. लेकिन आउटलुक का प्रयास बेहद घटिया लगा. मैंने अंग्रेज़ी आउटलुक पढ़ा सिर्फ़ मन को बहलाने का बहाना है.
वही घिसे-पीटे सवाल वही जवाब..आज से १० साल पहले भी हम यही पढ़ते थे. उसी सेक्सोलोगिस्ट (डॉ कृष्णामूर्ति) का मैंने १९९९ में ब्लिट्ज के लिए इंटरव्यू किया था. महज़ बचकाना..सिर्फ़ एक बात नयी है कि सेक्स करने की तीव्रता घटी है मंदी और बाकी कारणों से.

roushan said...

सेक्स जीवन का हिस्सा है और उसपर सर्वे में कुछ भी ग़लत नही है
समाज को जंजीरों में बाँध कर रखने से कुछ अच्छा नही होता.
चित्र सेंसुअल हैं तो इसमे बुराई क्या है कई बार कुछ लोगों का लिखा ही तमाम चित्रों से ज्यादा सेंसुअल होता है

अभिषेक मिश्र said...

आउटलुक और ऐसी ही अन्य पत्रिकाओं के ऐसे सालाना संस्करण सिर्फ़ सस्ती लोकप्रियता के लिए ऐसे शोध किया करते हैं. गंभीर विषयों में लोकप्रियता के ऐसे तत्व नहीं. अख़बारों को ऐसे ढकोसलों की फिलहाल तो कोई जरुरत नहीं दिखती, अलबत्ता इलेक्ट्रोनिक मीडिया इसमें पीछे तो नहीं दिखता.
(gandhivichar.blogspot.com)

niranjan said...
This comment has been removed by the author.
niranjan said...

मीडिया के लोग कहते हैं की मीडिया वही दिखाता हैं जो लोग देखना पसंद करते हैं शायद यही कारण हैं की नई दुनिया जैसा नया अखबार भी अपना पाठक सख्या बढ़ाने के लिए सेक्सं शरणम गच्छामि (४ नोवंबर २००८ ) जैसा पन्ना निकलती हैं | मै आपके राय से सहमत हूँ लेकिन दूसरी सच्चाई यह भी हैं की सेक्स बिकता है और इसलिए ही सरस सलिल जैसी पत्रिका का वितरण सर्वाधिक हैं | NIRANJAN KUMAR
MEDIAHINDI.BLOGSPOT.COM

hamarijamin said...

Ravishji,
aap jaldi mein Print banam electronic karenge to aap bhi khemebaji ke khute mein bandh jayenge. Kya Outlook ne aapko mauka de diya ki aap isi bahane aalochako se nibat lein ki lo bhaiya tumahara wala Print media bhi hamari jaisa hai.
Ravish! Overall patrakarita ke bare mein charcha honi chahiye.
ek bat aap jarur manenge ki print mein abhi bhi apni aalochana bardashta karne ki Tamij or space hai. aap unlogo mein se hain jo khijha kar kisi ki tarafdari ya aalochana nahi karte.

Jayram Viplav said...

hamari mitra mandli bhi aaj kal midia ki chir-phad main lagi hai. kuchh blog to kuchh natak taiyar karne main jute hain. natak hai "kabira bika bajar main".
" kabir" ek naam nahi ek wichar hai jisne apne samay ke tamam galat chijo par chot karte hue samaj ko nai rah dikhane ka kam kiya . tab ke jamane main kabir jaise log hi to media ke upyukt sadhan the . aaj ka kabir yani media jiske upar samaj ki aankhe tiki rahti hai , apne aap ko bajar ke hawale kar chuka hai tab outlook ho ya india today kaya fark padta hai.....................maaf kijiyega .... aaj kal akadh naam hi mil pate hain jo sahi aur samajik sarokaro se judi patrakarita kate hain. kul milakar 10 badi punjiwadi companiyon ki hatho main sara bhartiy media simta hai.
electronic media ka sach to aur bhi nanga hai . asamanta ko patne ka dambh bharne wali media main koi 5-6 hajar ke ji tod mehnat karta hai to wahi koi 3-5 krore ke pacage ka maja utha raha hai, bagal -agal ki kamai ko to jane do .......................ab kya chhapna ya dikhana hai ye darshko athwa pathko se puchh kar to decide nahi hoti !jo man main aaye chhapiye sex batoriye ya pashchim ki wichardhara failayiye ........aapki marji .....

RDS said...

रविश जी, एक सामान्य व्यक्ति के तौर पर मेरे विचार इस प्रकार हैं |

(१) इले. मीडिया : जन सुलभ है | परिवार में आमतौर पर समूह में बैठकर देखने का भी चलन है |
प्रिंट मीडिया : एकल पढ़ सकते हैं | अपनी रूचि के अनुरूप चयन कर सकते हैं | ज़रुरत पढ़ने पर छुपा सकते हैं |

(२) इले. मीडिया : प्रसारित कार्यक्रम स्वयं चर्चा का विषय बन जाते है | जिन्होंने न देखा हो वे भी समान रूप से चर्चारत / प्रभावित पाए जाते हैं |
प्रिंट मीडिया : यदा कदा ही चर्चा का विषय बनाते हैं |

(३) इले. मीडिया : प्रायः हर वर्ग तक पहुँच प्राप्त है, शिक्षित होने की भी अनिवार्यता नहीं | टी वी भर घर में हो बाकी चैनल की जुगाड़ हो ही जाती है |
प्रिंट मीडिया : खर्च करना पड़ता है | तुलना करें तो उपयोग कर्ताओं का प्रतिशत काफी कम बैठेगा |


इस नाते, बेशक प्रिन्ट मीडिया की भी जिम्मेदारी है परन्तु असर अपेक्षाकृत कम है जबकि, इले. मीडिया की जिम्मेदारी अधिक है | हाँ, दैनिक अखबारों में ऐसा हो तो विशेष चिंतनीय है |

neha said...

jo dikhta hai vo bikta hai ke tarz par kab tak chalege? aakhirkar patrakarita hi isliye ki jati hai ki samsyao ko is tarah utha de ki samadhan bhi nikal aaye. aaj ye maine badlte nazar aa rahe hai.

neha gupta

Randhir Singh Suman said...

nice