राधा क्यों गोरी मैं क्यूं काला की जगह राधा क्यों श्वेत मैं क्यूं अश्वेत...क्या ऐसा सुनना पसंद करेंगे इस गाने को। अंग्रेज़ी में ब्लैक ही कहा जा रहा है हिंदी के मास्टरों ने अश्वेत बना दिया है। पता नहीं किस कूड़ेदान से इस शब्द को उठाकर अखबारों के पन्नों पर फेंक दिया गया है। राजनीतिक चेतना हमेशा ग़लत शब्दों के कारण फूहड़ हो जाती है।
जो काला है वो काला है। जो गोरा है वो गोरा है। अश्वेत कह कर आप किसी काले को ही संबोधित करना चाहते हैं। ठीक है कि काले की संवेदनशीलता का ख्याल रखा जाता है पर क्या वो नहीं जानता कि अश्वेत सिर्फ एक बहाना है। असल में आशय काला ही है। बराक ओबामा को हिंदी मीडिया के स्टाइल शीट प्रोफेसर क्या लिखें। अश्वेत या श्वेत। ओबामा की हर खबर में यह फटीचर शब्द आता है। अश्वेत। काला शब्द में खराबी नहीं। सिर्फ उसके पीछे की अवधारणा में है। जो लड़ाई लड़ी जा रही है वो काला शब्द के खिलाफ नहीं है बल्कि अवधारणा से होगी। वो अवधारणा जिसे समाज तय करता है।
तभी तो बोली मुसकाती मैया सुन मेरे प्यारे। गा गा कर यशोदा नंद के सवालों का जवाब नहीं देती। मगर यशोदा यह नहीं कहती कि काला होना खराब है। बेटे कान्हा तुम काले नहीं अश्वेत हो। राधा भी गोरी नहीं कान्हा, वो तो श्वेत है। ऑटोग्राफ का हिंदी में क्या शब्द हो। यह धारणा तो हिंदी की नहीं है न। मुझे नहीं लगता कि हनुमान ने राम और सीता का ऑटोग्राफ मांगा होगा या अकबर ने तानसेन। वर्ना इसका भी हिंदी शब्द होता ही। नहीं है तो ऑटोग्राफ कहने में क्या हर्ज़।
मुझे नहीं पता ओबामा क्या करेंगे। लेकिन उनकी जीत से जो असर होगा उसमें मेरी दिलचस्पी है। एक काला राष्ट्रपति बनेगा। हमारे यहां भी कई काले और गोरे राष्ट्रपति बन चुके हैं। लेकिन नस्ल का भेद यहां नहीं। रंग का है। शादियों में लड़का पूछता है कि दुल्हन गोरी है न। शादी के विज्ञापनों में लिखा होता है कन्या गौर वर्ण की है। ये एक और अति है। गौर वर्ण। मोरा गोरा रंग लई ले...मोहे श्याम रंग दई दे....रंगों का एक्सचेंज ऑफर है इस गाने में। मोरा श्वेत रंग लई ले नहीं है।
31 comments:
अच्छा विश्लेषण है, रवीशजी। पसंद आया।
सही है.. :)
आगे से मैं भी यही गाऊंगा, मेरा श्वेत अंग लई ले.. मोहे अश्वेत रंग दई दे..
हम आपके अभिमत से सहमत है. मन की गंदगी को ढँकने के लिए संस्कृत मूल के शब्दों का प्रयोग कर आश्वस्त हो जाने की परंपरा सी बन गयी है. आभार.
http://mallar.wordpress.com
सही फरमाइल गईल बा. फरियाइलो गइल बा.
हमरे मन की बात कह दी...
अश्वेत में मूलत श्वेत उभर रहा है। श्वेतों की दुनिया में काले को उभारने के लिए अगर अश्वेत शब्द बनाया , ठीक है। तब उसी तर्क के आधार पर बहुसंख्यक कालों की दुनिया में गए गोरों के लिए अश्याम शब्द चलना चाहिए था न कि श्वेत...भारत में उन्हें अश्याम कहना ठीक होता , दक्षिण अफ्रिका में भी।
आज के ज़माने में इन शब्दों का कोई अर्थ नहीं है। इससे तो अश्वेत लिखने से क्या रंगभेद चला जाता है। फिर रंग ही क्यों नस्ली संबोधन क्या बुरा है। निगर , नीग्रो या काला लिखने में कोई बुराई नहीं। क्या हरिजन शब्द को वह सम्मान प्राप्त हुआ जो बापू देना चाहते थे ?
शुक्रिया
कुछ तो लोग कहेंगे/ लोगों का काम है कहना...
कुछ रीत जगत की ऐसी है/ हर एक सुबह की शाम हुई/ तू कौन है तेरा नाम
है क्या?/ सीता भी यहाँ बदनाम हुई/ फिर क्यूँ संसार की बातों से भीज गए तेरे नैना?
कुछ तो लोग कहेंगे/ लोगों का काम है कहना...
Ravish ji, sahi kaha hai aapne phit bhi ek baat par gaur kariyega ki ashwet ka matlab kala nahi hota, matlab hai ki koi aur rang bas shwet(white) nahi....
कुछ के लिए अंग्रेजी शब्द उपयोग में लिए जाते है जैसे वेश्या को सेक्स वर्कर कहें...अपंग को डिफरंटली एबल्ड कहें... सभी आडम्बर लगते है. महत्त्व मन की भावना का है.
'काले हैं तो क्या हुआ दिलवाले हैं' का फंडा सबसे सही है .
हमारे देश में 'यूफ़िमिस्म' यानी 'प्रियोक्ति' की लंबी परम्परा है जैसे 'अंधे' को 'सूरदास' कहने की हमारी परम्परा-अनुमोदित शैली. इधर मनोवैज्ञानिक फंडों के चलते 'डिसेबल्ड' को 'डिफ़रेंटली एबल्ड' कहने का भी चल शुरु हुआ है .
पर काले रंग में तो एक अद्भुत आकर्षण और एक अज़ीब-सी 'डेफ़्थ' है . अमेरिका में तो एफ़्रो-अमेरिकन्स के लिए 'ब्लैक' शब्द बिना किसी कुंठा के खूब प्रचिलित है . तो हम काहे उसे चिकना-चुपड़ा बनाने पर जोर दे रहे हैं ?
क्या यह विवाह के विज्ञापनों में 'चाहिए' के अन्तर्गत इच्छित-वर्णित गोरी लड़की और फ़ेयरनेस क्रीम की जबर्दस्त बिक्री के पीछे की उसी भारतीय कुंठा का प्रकटन-प्रदर्शन है ?
ye ladai avdhaarna ki hi hai
शब्द से क्या फर्क पड़ता है अगर पीछे भावना तिरस्कार करने ही की हो ..चाहे निगर कहें अश्वेत कहें काला कहें ..
हरिजन कह लिया कोई फर्क पड़ा? मेंटली चैलेंज्ड कह देने से उस व्यक्ति विशेष की स्थिति बदल जाती है या विज़ुअली इम्पेयर्ड कह देने से अँधापन ख्त्म हो जाता है ?
आप अश्वेत न कहें काला ही कह लें ..आप किस तरीके से कहते हैं वो महत्त्वपूर्ण है .. अश्वेत कह कर भी तिरस्कार जताया जा सकता है और काला कह कर भी ..
हर शब्द की अपनी अलग महत्ता है, उसका अपना स्वतन्त्र अस्तित्व है। जैसे कि जल पानी नहीं और पानी जल नहीं। नीर और पानी में भी अन्तर है। ध्वनि और भाव की दृष्टि से इनमें फर्क है। इसीलिए रवीश जी! 'चमार' और 'दलित' में फर्क है। वाक्यों के बीच में कहीं 'और' फिट बैठता है, कहीं 'तथा' तो कहीं 'व'। अश्वेत जिस आशय और उद्देश्य के तहत चलन में है उसको ध्यान में रखकर आप उसे फटीचर शब्द नहीं कह सकते। कोई शब्द फटीचर नहीं होता।
रविश जी
आपने दुरुस्त फरमाया है....हमें क्लासिक शब्दों से बचना ही चाहिए। ओबामा को हम पहला काला राष्ट्रपति ही कहें तो अच्छा होगा....
हिंदूस्तान में भी ऐसा दौर आना चाहिए जब कोई काला प्रधानमंत्री की कुरसी पर विराजमान हो....हमें अपने काले होने पर गर्व है...सही है...कृष्ण भी तो काले ही थे....
भाई यह तो मैं मानूंगा कि कोई शब्द फटीचर नहीं हो सकता. आप उसे कैसे लेते हैं यह देखने वाली बात है. बलात्कार और दुष्कर्म. दैनिक जागरण बलात्कार नहीं दुष्कर्म लिखता है. जागरण की संपादकीय नीति के तहत बलात्कार थोड़ा कठोर शब्द है. हो सकता है लेकिन मैं इसमें यकीन नहीं करता हूं....
टीवी श्वेत और श्याम होता है. वही ब्लैक एंड व्हाइट है. यह कहना ठीक होगा कि अखबार और चैनल शब्दों को लेकर टाईप्ड हो जाते हैं...नया शब्द लिखने वाले लड़के को सीनियर टोक कर ठीक करा देते हैं.
कमेंट में देख लीजिए...कई लोगों ने हिंदी के पूर्णविराम को हटाकर अंग्रेजी का फुलस्टाप लगा दिया... किसी को खटका नहीं और खटकना भी नहीं चाहिए....भाषा नदी के समान है...कंप्यूटर के आने से यह थोड़ा और बदला है.......
प्रत्रकारिता में भी प्रसून जोशी, जयदीप साहनी, विनय ठाकुर की सोच आनी चाहिए.....
काले गोरे
लँबे नाटे
दुबले मोटे
पर हैँ तो सब इन्सान !
अच्छे और बुरे वहीँ फर्क रहेगा
- लावण्या
गोरा - काला,
श्वेत - अश्वेत,
चमार - हरिजन - दलित,
black - african-american, पागल - मंदबुद्धि - मेंटली चैलेंज्ड - डिफरेंटली एबल्ड,
चाट - एस्थेटिकली चैलेंज्ड,
रंडी - वेश्या - सेक्स वर्कर,
मन की भावना तो शब्दों से ही प्रकट होती है... गांधी ने 'हरिजन' नाम देना चाहा, लेकिन उन्होंने इस पर एतराज किया। इसकी तुलना में उन्हें 'दलित' कहलाना ठीक लगा। अमेरिका में ब्लैक अपमानित करने के लिए कहा जाता रहा है। हम मज़ाक में अपने किसी दोस्त को बंदर कह दें तो ज़रूरी नहीं कि वो बुरा मान जाए। लेकिन भज्जी-सायमंड्स विवाद अपने में कई रंग समेटे हुए है।
जिसे हम संबोधित करते हैं क्या उसकी भावना का भी ख़्याल रखते हैं ?
क्या शब्दों की अपनी कोई महत्ता नहीं होती ?
शरीर का काला या गोरा रंग..ईश्वरीय..पैतृक(जैनिटिक)..जगह..देश..जलवायु पर निर्भर करता है..तमिलनाडु,अफ्रीका या केनिया में हैंडसम..काला रंग लिये...मोहब्बत के परवाने..अपनी महबूबा के कोयल के रंग वाले चेहरे को देखकर..उसकी तारीफ में..दिन रात कसीदें पढ़ते होंगे..चांद-तारे तोड़ने का दावा करते होंगे..उसे हुस्न की मल्लिका कहते होंगे..शरीर का काला या गोरा होना..नाक,कान,आंखों के रंग(नीली,भूरी) की तरह ईश्वर की देन है..उसे प्रसाद समझकर स्वीकार करना चाहिये..फेयर एंड लवली या प्लास्टिक सर्जरी से चेहरे के रंग के डिजाइन में कुछ फर्क पड़ता हो..मुझे नहीं मालूम...लेकिन इतना मालूम है कि तन के काले की जगह मन से काला होना ज्यादा बुरा.. है..मन से काला और तन से गोरा...कोई भी व्यक्ति...ज्यादा खतरनाक...कष्टकारी साबित होता है...मन के काले और मन के उजलों (साफ,ईमानदार,सच्चे)के बीच भेदभाव,फर्क होना..सार्थक है..होना चाहिये...वैसे मरहूम महमूदसाहब तो खुलकर गा चुके हैं..काले हैं तो क्या हुआ..दिल वाले हैं..हम तेरे-तेरे चाहने वाले हैं...
bilkul sahi kaha aapne
kal mere newspaper me pahle edition me khabar ki heading thi
"white house par chada kala rang" lekin aage ke editons ke liye use badal kar "white house par chada ashvet rang"
हमारे यहाँ परम्परा रही है अप्रिय सत्य न बोलने की मगर इस परम्परा के पालन में अनजाने में ही कभी-कभी उपहास का भाव आ जाता है. इससे बचने की जरूरत है. ओबामा सिर्फ़ ओबामा ही क्यों न रहें क्या कोई विशेषण लगाना इतना आवश्यक है! उन्हें अमेरिका के राष्ट्रपति की कुर्सी अश्वेत कोटे से तो मिली नही है. यह उनके औरों से अलग होने के भाव को ही जगायेगा.
सचमुच माटिॆन लूथर ओर अंबेडकर के सपने सच हो चले है आपने जो कहा है सच कहा है । काश लूथर जिंदा होते ओऱ अपने सपने को साकार होते दिखते । लेकिन ओबामा ने वो कर दिखाया है जो अमेरिका के २१९ साल के इतिहास में नही हो पाया था । अपने राधा और कृष्ण की कहानी इन काले ओऱ गोरे से अलग है ।
शायद ये व्याख्या किसी के दर्द को मरहम लगाने का काम अच्छी तरह कर सकती है।अश्वेत यानि काला, इस शब्द को सभ्य समाज पढ़े लिखे लोगों की भाषा समझता है।इसी समय किसी आंचलिक या किसी क्षेत्रीय भाषा की बात करें उदाहरण के तौर पर काले को
करिया इस शब्द मे तीक्ष्णता है।खैर अश्वेत या सांवले रंग वाल सभी लोग ह्रदय से रविश जी आपके आभारी है।
Ravish ji,
Aap ke is msg se mera to yahi kahna hai ki gore ya kale se kay hota hai. logo ko ye baat samajhani chahiye. mai yeh poochana chahta hoo ki agar koi kaam gora kar sakta hai to wo kaam kale nahi..Aadmi ko uske rang se nahi uske kaam aur vichaar se pahchanana chahiye.Ravish ji mai
Ravish ji,
aur mai umeed karta hoo ki bhavishya me log kisi ko kale aur gore ke roop me na dekh kar uske soch aur vicharo se prabhavit ho kar faisla lenge.mai ye baat bharatvaasiyo se kahna chahta hoo kisi ko jat, paat se dekh kar uske kaam ka aaklan na kare.
Ravish ji,
Waise to maine abhi kuch hi dino se blog likhana suru kiya hai.
http://ashish-correspondent.blogspot.com/
kripya mere blog ke baare me bhi kuch vichaar vyakat kare..!
Dhanyavad..!!
वाकई बहुत सही कहा है। लेकिन समझने वाली ये है कि शब्द अश्वेत में भी काले लोगों का तिरस्कार है। यानि उनकी खुद की पहचान काले होने के बजाय उन्हें गोरों के रंग से विपरीत होने से पहचाना जा रहा है।
असल में हिन्दी में अश्वेत शब्द का इस्तेमाल करना एक भयंकर भूल है। यदि देखा जाए तो ये शब्द ज़बर्दस्ती ही एक पर्यायवाची बना दिया गया है। अगर हमें गोरे का विलोम शब्द लिखना है तो काला होगा और श्वेत का विलोम होगा कृष्ण न कि अश्वेत।
वाकई..आपने पते की बात कही है...अमूमन लोग इतनी गहराई से सोचते ही नहीं है...अभी तक मैं भी नहीं सोच पाया था। दरअसल हमार यहां लोग हैं ही ऐसे...तभी तो सवर्ण के बदले अवर्ण भी बना दिया..और न जाने कितने ही शब्दों में अ जोड़कर उसे लांछित होने के लिए छोड़ दिया...मुझे लगता है इस मामले को लेकर भाषाविदों का एक आयोग बनना चाहिए जो इस तरह के शब्दों को डिलीट करने का काम करें...और इसकी अनुशंसा भी करें।
हे भगवान सभी कमेंट में घोर चाटुकारिता .....
मन की बात कह दी ....
सही कहा ...
अच्छा विश्लेषण है....
सही है...
आपसे सहमत हैं....
सही फऱमाया....
पते की बात कह दी....
सभी महानुभाव चाटुकारिता में एक दूसरे से होड़ ले रहे हैं.....ऐसी अंधचाटुकारिता जैसे कि रवीश जी ने पांचवे वेद की रचना कर दी हो.....ये सब किस मकसद से....
आपके लिखे पर टिप्पणी कराने नहीं आया हूँ. ना इतना साहस है ना सामर्थ्य. :) बस इस बात का धन्यवाद देना था कि आपने हिन्दुस्तान पे लिखे ब्लॉग-वार्ता में मेरे ब्लॉग का भी उल्लेख किया. :) आशीर्वाद बनाये रखें.
दरअसल हिंदी के कुछ ऐसे स्वनामधन्य प्रोफेसर पैदा हुए हैं जो अपनी साहित्यिक कुंठा की मुक्ति का द्वार कुछ शब्दों की वर्जनाओं में तलाशते हैं। वे ये मानने को तैयार नहीं कि आप जिस तरह गोरों को गोरा कह सकते हैं उसी तरह काले को काला भी कह सकते हैं। हां काला कहते समय आपकी भावना में कालापन नहीं होगा चाहिए, दुर्भावना नहीं होनी चाहिए। जैसे कि आप मज़ाक उड़ाने के भाव में किसी को विद्वान या क़ाबिल कहते हैं तो वो बात भी उसे चुभ जाती है। जबकि क़ाबिल शब्द बुरा नहीं है। इसी तरह काला कहने लिखने में हर्ज़ नहीं... किस मक़सद से लिखते हैं वो महत्वपूर्ण है।
आख़िरकार काले बराक ओबामा इतिहास रच ही दिया! :)
एक कॉम्प्रोमाइज़ड वर्जन भी है- सांवला....
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ye vishleshan maine nai dunia akhbar ke sampadkiye me bhe pda tha kafi sahi hai darasal media kitna bhi sach kyo na kehna chahe dabavo ka dayra har taraf bandha he rehta hai shayad he kisi channel par ashwet shabd pryog kiya gya ho kisi aam vyakti ko agar vo kala hai to kala kehne me koi harz nahi lekin kisi uchi post par hai to mehaz dikhave ke liye ashwet kehna yahi prampra hai is dakiyanusi smaj ki hame bhulna nahi chahiye kis tarah gandhi ji ko black man kehkar train se niche utar diya gya tha
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