मामूली खुशियों की दुनिया में लौटा लेने आई है श्याम बेनेगल की फिल्म वेलकम टू सज्जनपुर। हमारी ज़िंदगी के बीच से बहुत सारी चीज़े गायब होती जा रही हैं, अपनी इस फिल्म के ज़रिये बेनेगल उन्हें ढूंढने की कोशिश कर रहे हैं। चिट्टी आती नहीं और डाकिया अब परिवार नियोजन से लेकर कूरियर तक के काम में लगा दिया जा रहा है। गली की मोड़ से लाल बक्सा गायब होता जा रहा है। ई-मेल और एस एम एस के ज़माने में शब्द सिर्फ एक बीप साउंड बन कर रह गए हैं। हमें मालूम ही नहीं शब्दों का इस्तमाल और लिखने का अंदाज़।
बेनेगल का किरदार महादेव याद दिलाता है कि शब्द सबके बस की बात नहीं। वेलकम टू सज्जनपुर का किरदार महादेव कहता है एक एक शब्द के पीछे भावना होती है। यूं ही नहीं लिख देता है कोई चिट्ठी। रात भर जाग कर जब वह शब्दों में भाव भरता है तो फ्लैश बैक में प्रेम के बिल्कुल सादे क्षण बन जाते हैं। जहां आडंबर नहीं है, कोई बड़ी बात नहीं है। सिर्फ प्रेम की चाहत है। मामूली चाहत।
बहुत दिनों के बाद एक ऐसी फिल्म आई है जो वासु चटर्जी, ह्रषिकेश मुखर्जी की याद दिलाती है। श्रेयस तलपडे आज के अमोल पालेकर लगते हैं। आम आदमी का हीरो। गमछा और कुर्ता और साइकिल। गांव की पगडंडिया। कभी खुशी कभी गम, तारा रम पम पम, हंसो और हंसाया करो। थोड़ा है थोड़े की ज़रूरत है, ज़िंदगी फिर भी यहां खूबसूरत है। कुछ इसी तरह के साधारण गाने हैं वेलकम टू सज्जनपुर के। नब्बे के दशक में हमारी चाहत बड़ी होती चली गई। आर्थिक उदारीकरण ने हमारे सपनों को उदार बना दिया। हम गाने लगे थोड़ी सी तो लिफ्ट करा दे। हमारा हीरो बड़ी कामयाबी हासिल करने लगा। महानगरों और मल्टीप्लेक्स का होने लगा। मल्टीप्लेक्स के हिसाब से फिल्में बनने लगी। शहरी और मध्यमवर्गीय फिल्में। गांवों को ग़ायब कर दिया गया। हमने मान लिया कि देश साक्षर हो चुका है। गांव शहर हो चुके हैं।
श्याम बेनेगल की यह फिल्म उन गांवों की कहानी है जहां आज भी बहुत कुछ नहीं बदला। डिस्पेंसरी की दीवार पर चिपका सरकारी नारा हम दो हमारे एक। डॉक्टर गायब है और कंपाउंडर इलाज कर रहा है। दिल्ली और मुंबई के कई अपार्टमेंट को आबाद करने वाले मध्यमवर्ग के भीतर आज भी गांव छुपा हैं। वो स्वीकार नहीं करना चाहते। बेनेगल याद दिलाते हैं। हैदराबाद में मध्यप्रदेश के बघेलखंड की पृष्ठभूमि तैयार कर देते हैं और इस तरह यह गांव पूरे भारत का गांव बन जाता है। धीरे धीरे कहानी खुलती है और बताती हैं बड़े सपनों की चाहत में हम छोटी खुशियों को कैसे भूल गए हैं। बॉल पेन को खारिज कर महादेव जब स्याही की कलम से ख़त लिखता है तो किसी पुराने ज़माने में छूट गया इंसान नहीं लगता। दुकानदार कहता है तुम अपना नाम महादेव से भ्रम देव रख लो। महादेव कहता है कि वो इस कलम से मोहब्बत करता है। फिल्म बहुत ही सहज रूप से बता रही है कि हम सब के भीतर महादेव है जो स्याही की कलम को प्यार कर सकता है। मगर हम सब दुनिया की दौड़ में बॉल पेन और कंप्यूटर की-बोर्ड पर शब्दों को टाइप किये जा रहे हैं। भावनाएं खत्म हो रही हैं।
लेकिन यह फिल्म गांव की याद दिलाने के लिए ही नहीं बनी है। कामेडी है। मगर कामेडी के ज़रिये उन मुद्दों पर फिर से बहस करा देती हैं जिन्हें हम बोरियत भरा मान कर उन न्यूज़ चैनलों को देखने लगते हैं जहां दुनिया के खात्मे का एलान हर दिन कोई बेलमुंड ज्योतिष करने लगता है। वेलकम टू सज्जनपुर जन के द्वारा जन के लिए लोकतंत्र की बात करती है। मुखिया के चुनाव में होने वाले प्रपंच को प्रहसन में बदल कर उस कुंठा को हल्का किया जाता है जो हमें यही याद दिलाती है कि इस देश का कुछ नहीं हो सकता।
हंसते हंसाते बेनेगल बताते हैं कि बहुत कुछ हो सकता है। वो भी आसानी से। सिर्फ हम अपने बोल बदल दें। शब्दों को ठीक जगह पर इस्तमाल करें। तभी तो दबंग रामसिंह कलेक्टर को चिट्ठी भेज कर अपने प्रतिद्वंदि को पाकिस्तानी जासूस बना देता है। लिखने वाला तो महादेव ही है। अगली बार महादेव राम सिंह की चिट्ठी की भाषा बदल देता है और कलेक्टर रामसिंह पर शक करने लगता है। मुन्नी देवी का किरदार कामेडी के बाद गंभीर होता हुआ लोकतंत्र की लड़ाई को जन की लड़ाई में बदल देता है। मुन्नी देवी कहती है मैं तो ऐसी तैसी नहीं जानती, डेमोक्रेसी जानती हूं।
यहीं पर श्याम बेनेगल भाषा का फर्क सीखा रहे हैं। राम सिंह की भाषा और मुन्नी देवी की भाषा का फर्क। जब एक प्रसंग में मुन्नी देवी कलेक्टर को ख़त लिखती है तो उसकी भाषा बता रही है कि बहुत कुछ बचा है। कलेक्टर को हुजूर कहते वक्त मुन्नी देवी सिस्टम के सामंतवादी ढर्रे में आस्था नहीं जताती बल्कि एक जनसेवक से उम्मीद लगा बैठती है कि हुजूर इंसाफ करेंगे।
ख़त लिखने के बहाने श्याम बेनेगल किसी नोस्ताल्जिया को उतारने की कोशिश नहीं कर रहे हैं। वह शब्दों की अहमियत पर ज़ोर दे रहे हैं। उदासी और हताशा के दौर में वो आस्था पैदा कर रहे हैं। अच्छे शब्दों से निकले नारे से जनता मुन्नी देवी के लिए खड़ी हो जाती है। फिल्म में लोकतंत्र जीतता है तो यही बताने के लिए अपनी मामूली समस्याओं के बाद भी लोक जी रहा है। मरता नहीं है।
महादेव का प्रेम, कमला का इंतज़ार और मौसी की बेकरारी। मुंबई गए एक मज़दूर की व्यथा। अपनी बाल विधवा बहू के प्रेमी को पाकर रोते बिलखते सूबेदार। इसके बाद भी सज्जनपुर सबका स्वागत करता है। याद दिलाता है कि हो सके तो कभी लौट आइयेगा अपनी उस पुरानी दुनिया में। जिसे हम छोड़ कभी बड़े सपनों को हासिल करने चले गए हैं। यह एक अद्भुत फिल्म है। हंसाती है, रुलाती है और खुशियों से भर देती है। जीवन यहां किसी राष्ट्रीय समस्या को निपटाने का संघर्ष नहीं है बल्कि छोटी छोटी खुशियों को पाने की ज़िद है।
इस फिल्म की कहानी, किरदार और संवाद किसी कल्पना की उपज नहीं है। आम जीवन से बस उठा लिये गए हैं। साधारण से संवाद हैं और बाते बड़ी बड़ी नहीं हैं। यह फिल्म सरपंची के चुनाव को इतना मार्मिक बना देती है कि मुन्नी देवी के साथ साथ रोने का मन करता है। कमला की खुशी के लिए जब महादेव अपनी ज़मीन गिरवी रख देता है तो याद आता है कि तमाम कामयाबियों के बीच हम किसी के लिए कुछ करने की आदत को किस तरह से भूलते जा रहे हैं। इन्हीं सब बातों को याद दिलाने के लिए श्याम बेनेगल आप सभी का स्वागत कर रहे हैं। वेलकम टू सज्जनपुर।
(आज के अमरउजाला में यह लेख छपा है)
17 comments:
शुक्रिया। फिल्म देखने का बना रहा था पर अब देखना ही पड़ेगा।
रवीश भाई, दो बातों के लिए शुक्रिया ...
आपने मेरी मेहनत बचा दी...दूसरे अच्छी समीक्षा की...
कुछ दिनों पहले ही सज्जनपुर देखी । बहुत अच्छा अनुभव रहा। खुशनुमा एहसास...श्याम बेनेगल के स्पर्श वाली सतरंगी फिल्म । बिना किसी उपदेश के हकीक़त बयान करती हुई...
मेरी मेहनत इसलिए बची क्योंकि मैं भी इस पर लिखना शुरू कर चुका था :)
bahut khub... maine apne do janon ke chote se pariwar aur doston ke saath ye film dekhi thi... kafi achchi hai... shabd wakai kam padne lage hain aajkal.....
Syayad kabhi film dekhoon...Dhanyawad!
Instant coffee age (kaliyuga?) mein khush kar dene wale shabda internet se bhi prapt ho jate hein, udaharan taur per-
Doctor to Santa (Patient): Ab aapki tabiyat kaisi hai?
Santa: Doctor saheb Pehle se jyada kharab ho gayi hai.
Doctor: dawai khali thi kya?
Santa : Nai doctor saheb. Dawai ki shishi to bhari hui thi.
Doctor: Are Santa ji mere kehne ka matlab hai ki, dawai le li thi kya.
Santa: Ji, aapne dawai de di thi aur Maine le li thi.
Doctor: Abe, dawai pili thi kya?
Santa: Oho, nai doctor saheb dawai to lal thi.
Doctor: Abe GADHE, Dawai KO piliya tha kya?
Santa : Nai. Doctor, Piliya to mujhe tha.
Doctor (in frustration) : Abe Teri to, Dawai KO muh lagakar Pet me dala tha k nai?
Santa: Nai doctor saheb.
Doctor: Kyon?
Santa: Kyonki dhakkan band tha.
Doctor: Teri sale, to Khola kyon nai.
Santa: Saheb, aapne hi to kaha tha ki, shishi ka dhakkan band rakhna.
Doctor: Tera ilaz main nai kar sakta!
Santa: Accha Doctor saheb ye to bata do ki main thik kaise hounga
Doctor : Abe teri … @#$! ^&*!
------------THE END?--------------
कल हीं देखा वेल्कम टु सज्जनपुर। मनोरंजक फिल्म है। अच्छा मनोरंजन चाहने वाले सभी को देखनी ही चाहिए।
लेकिन, चलचित्र का नाम अंग्रेजी मे रखने की जरुरत नही थी। उसमे दिखाया गया नुकड नाटक और महादेव के नक्सली आरोप लगने का संवाद से लगता हौ की फिल्म निर्माण मे कोई उग्र वामपंथी बन्धु संलगन रहा है। कही कही विचारो को थोपने की कोशीश मनोरंजन मे बाधक बनती है।
RAVISHJI, "HINDUSTAN" ME AAPKE "bLOG VARTA" KO PADHTA RAHTA HOON. NET PAR V "QASBA" PADHNA ACHCHHA LAGTA HAI. KRIPAYA MUJHE BATAYEN KI MAI KAISE APNE BLOG HEADING KO HINDI ME LIKHUN. PLEASE JAROOR BATAIEGA. --DEEPAK KUMAR, JHARKHAND EMAIL: deepakkazh@gmail.com
फिल्म भी बेहतरीन है ....और आपकी समीक्षा भी....जबरदस्त..
हर कोई जो बेनेगल साब की इस फिल्म को देखेगा उसे जरूर कई बातों को एक नए सिरे से सोचने की जरूरत होगी। गांव के बारे में, उनकी हर एक डॉयलग पर चोट मारती बातों पर और न जाने क्या-क्या...........
एक शब्द के पीछे भावना क्या होती है, इसे भी उन्होंने यहां खूब बताया है।
शुक्रिय बेनगल साब औऱ शुक्रिया रवीश एक शानदार पोस्ट के लिए।
गिरीन्द्र
आपकी समीक्षा फ़िल्म से बहुत अच्छी है....
जी वाकई।
बेहतरीन फिल्म है। इस फिल्म में सब कुछ बेहतरीन है। मानवीय भावनाओं को भी झनंकृत करती है। लेकिन मुझे इला अरुण जी वाला भाग ज़रा भी दिलचस्प नहीं लगा।
जो लोग हिंदी की ठेठ पट्टी से परिचित हैं उन्हें फिल्म में जान नज़र आएगी। मैंने फिल्म प्रीमियर में देखी थी। साथिन रिपोर्टर को जमी नहीं थी.. पर मुझे लगाकि बहुत दिनों बाद एक ऐसी फिल्म बनी है जो वाकई हिंदुस्तानी दर्शकों के लिए बनाई गई है। आपको मोतिहारी के किसी गांव का किस्सा नहीं लगता यह? मुझे तो अपने ही गांव के पात्र लगे.. राम सिंह का मामा जी को पल्सर के पीछे बिठाकर घूमना और मामाजी के सर पर गरमी से बचने के लिए तौलिया..। बेनेगल साहब ने खूब रिसर्च की थी लगता है। आज के फिल्मकार तो गांव उतारते वक्त सीधे गुलाबी साफा और कम कपडों में गांव की गोरी को नहाता दिखाते हैं। यकीन न हो तो भोजपुरी की ज्यातार फिल्में देख लीजिए। इनमें जिनकी कहानी है वही गायब है परदे पर से।
किसी ने टिप्पणी दी है कि उन्हें मौसी वाला सीन नहीं जमा..लेकिन सच तो ये है कि इला अरुण ने एकदकियानूसी मौसी का किरदार जीवित कर दिया है। थोड़ा लाउड जरुर हैं वो लेकिन इतना तो चलना चाहिए। रविकिशन ने भी जिस अंदाज से डॉयलॉग डिलिवर किए हैं वो उनकी पारंपरिक भोजपुरिया नाटकियता से हटके है।
आज के लोकतंत्र पर टिप्पणी करती इस फिल्म की सादगी ही उसकी यूएसपी है।
रवीशजी,
'हिन्दुस्तान' में आपको पढ़ा,फिर ब्लॉग देखा, आप नब्ज़ छू कर वस्तुपरक - धारदार टिप्पणी करते हैं। आपका लेखन सारगर्भित एवं विचारोत्तेजक है। हार्दिक बधाई!
मेरे ब्लॉग में आइये, आपका स्वागत है। यह अभी शैशवावस्था में ही है फिर भी आपको अपने होने का क्षणिक एहसास ज़रूर करायेगा।
संध्या गुप्ता.
blog: guptasandhya.blogspot.com
Meine ish film ka dusra show dekha tha, aur mujhe yeh film itni achi lagi ki meine do baar aur dekhi.
jis baat ko Shyam Benegal sahab ne rakha hai, woh aj ke sandarv mein bahut maayne rakhta hai...
Akhir mein apki samiksha...bas Lajawaab!!
बहुत लोगो से मिलता हुँ और पूछता हुँ आप जो आज है अगर ये न होते तो क्या होते तो वह कहते है मैं फलां-फलां होता। सवाल है अगर रविश पत्रकार न होते तो क्या होते तो जवाब है वह एक फिल्मकार होते। 100 फिसदी सच कहता हू और भविष्य में ऐसी कोई सम्भावना हुई तो हैरान होने की जरूरत न होगी। मैने आपके अभी तक सिर्फ दो ही लेख पढ़े है और टिप्पणी कर रहा हूं। आपने जिस तरह से समीक्षा की है उससे ही पता चलता है कि आप विषय को कितना डिप में लेकर चलते है, कोई भी पहलू छूट न जाऐ। एकदम सधे हुए निशानचीं की मानिन्द निशाना मारते है। यह अच्छा है। यह भी हो सकता है कि नीलेश की ही तरह हमें आने वाले समय में आपके भी कुछ गीत या किस्सागोई से भी मुखातिब होना पड़े। समीक्षा शानदार तरिके से कवर की विषय पर आपकी पकड़ है।
sriman ravish kumar,
bihar ke logon ki ek problem hoti hai ki bagai jane bujhe nishkarsh nikal lete hain. shyam benegal ki yah film waquee achchhi hai lekin usme jo ilaka dikhaya gaya hai wah baghelkhand nahin bundelkhand hai, dusare gaon hamare andar jinda rahta hai kyonki bharat me aapki pahchan wah akela saboot hai. ham bombay me bhi jaunpuri, banarasi ya bihari bankar rahte hain. hamari isi sachchayee ko parkha hai shyam ne.
रवीश जी,
आपने सत्य कहा। हिन्दी-पट्टी के किसी भी गाँव में चले जाईये, तरह के नज़ारे आम हैं। एक और भी फ़िल्म आयी है: A Wednesday
अगर आपने नही देखी तो ज़रूर देखें। आतंकवाद से त्रस्त एक आम आदमी क्या चाहता है? मैं ज्यादा बता दूँ तो फ़िल्म का मज़ा नही रहेगा... पर सभी लोगों से अनुरोध, फ़िल्म देखें और ये तय करें की अब आतंकवाद राजनैतिक जिमीदारी नही... सामाजिक जिम्मेदारी हो चली है। समाज को ही इसका हल निकालना है।
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