अंतिम इच्छा का आखिरी साल

धनतेरस एक साल पहले भी आया था। अस्पताल से निकल कर घर आए थे बाबूजी। जीवनदान का अहसास लेकर कि अब शायद दुबारा जीने का मौका न मिले। अपने हिसाब से उन्होंने जीवन में सब कुछ कर लिया था। जितना कर सकते थे उतने का संतोष हो गया था। इसके बाद के बचे सपने किसी नेता की ज़ुबान की तरह उदघोषित होकर भुला दिये जाते थे। एक सपना बचा रहता था। तमाम घोषणाओं के बीच। नई कार का सपना।

वो अपनी कमाई के पैसे से खरीदना चाहते थे। आईसीयू में ही अखबार में शेवर्ले के स्पार्क्स का विज्ञापन देख लिया था। फोन पर बहुत उत्साहित थे। बता रहे थे कि हेवी डिस्काउंट है। पटना में लोग बुकिंग करा रहे हैं। मेरी पेशकश को हंस के टाल दिया। फिर मै कहने लगा कि क्या करेंगे कार लेकर। ज़रूरत नहीं है। कहने लगे कि मैं जानता हूं कि ज़रूरी नहीं है। तो जवाब मिला कि मैंने बुक कर दिया है। यह सुन कर मैं हैरान रह गया। आईसीयू से निकलते ही कार की बुकिंग। वही कर सकते थे। पेशन से लोन ले लिया। बाकी पैसा निकाला और कार के पैसे दे आए। कहने लगे कि अब पैसे की ज़रूरत नहीं है। तुम लोग संभाल ही लोगे। मुझे नई कार चाहिए।


ठीक एक साल पहले के दिन यानी धनतेरस के दिन लाल रंग की कार आ गई। पोते पोतियों को लेकर बाज़ार गए थे। उन्हें चाऊमिन खिलाने। मेरी बेटी को फोन पर कहा कि तुम्हारे दादा जी के पास नई कार है। तुम जब पटना आओगी तो इस पर खूब घूमना। आज सुबह मां का फोन आया। कार को देख कर वो अंदर चली आईं। रोने लगीं। कहने लगीं कि साल भी पूरा नहीं हुआ। भाभी कह रही थीं कि उस कार को लेकर बहुत खुश थे।

एक कार खरीदने की जल्दी अपने जीवन के आखिरी साल में। समझ के बाहर भी नहीं है यह बात। जिस समाज से वे आते थे,हर दिन एक ताने के साथ उन्हें गुज़रना पड़ता था कि सेकेंड हैंड कार से चलते हैं। उसी की डेंटिंग पेंटिग कराते रहते हैं। हैसियतदार रिश्तेदारों के तानों ने भीतर ही भीरत एक कार का सपना बुन दिया था। जवाब देने की ज़िद भी। उनके सभी बेटे बेटियों ने कार खरीदी। नई कार। कभी खुश नहीं हुए। वो तमाम तानों का हिसाब करते रहे अपने भीतर। कब जवाब देना है। मेरे समझाने पर रुके रहे कि ऐसी बातों का न तो प्रतिकार किया जाता है न मलाल। बाबूजी समझ भी जाते थे। लेकिन उस साल क्या हो गया जो उनका हौसला टूट गया।

नई कार लेकर अपने पुराने पड़ोसी से मिलने गए। चाचाजी बता रहे थे कि इतना खुश थे कि पूछो मत। चाचाजी ने बाबूजी से कहा भी कि आप बच्चों जैसी बातें करते हैं। अब क्या करेंगे कार लेकर। बाबूजी ने कहा कि सब हम पर ताना देता था। बर्दाश्त नहीं होता था। लेकिन बर्दाश्त करते रहे कि बच्चों की पढ़ाई का खर्चा उठाना है। उनका काम हो गया और यह पैसा बचा रह गया। अब ज्यादा दिन नहीं जीने वाला, तो बैंक और पेशन के इस पैसे का क्या काम। नई कार पर चढ़ लेते हैं।

कई लोगों ने बताया कि ललकी कार को लेकर काफी खुश थे। सबके यहां आने जाने लगे थे। बताते थे कि अपनी कमाई से खरीदे हैं। किसी बेटे से एक पैसा नहीं लिया। हमारे समाज में पिताओं की अजीब स्थिति है। ज़िंदगी भर यही सोच कर त्याग करते हैं कि बेटे बेटियां नौकरी कर लें। बुढ़ापे का सहारा सुनिश्चित हो जाए। लेकिन बुढ़ापे में खुश इस बात से होते हैं कि बेटे से या किसी से कुछ नहीं लिया। फिक्स्ड डिपाज़िट के साथ भी यही होता है। बुरे वक्त के लिए बचाते हैं मगर खुश इस बात से नहीं होते कि बुरे वक्त में काम आ गया बल्कि इस बात से होते हैं कि उसकी ज़रूरत नहीं पड़ी।

मार्च के महीने में जब आखिरी बार हम उन्हें लेकर गांव जा रहे थे, उनकी कार पीछे पीछे चल रही थी। अनुराग चला रहा था। तब तक मुझे अहसास नहीं हुआ था कि यह वही कार है जिसे वो अपनी ज़िंदगी के आखिरी साल में खरीदना चाहते थे। मैं उस कार को देखने लगा। स्टिरियो पर हाथ चला गया। एक गाना बज गया। बाबूजी को यही एक गाना गुनगुनाते सुना हूं। लेकिन कभी उन्होंने इसकी सीडी या कैसेट नहीं खरीदा। पुरानी गाड़ी में भी सुनने के लिए नहीं। नई कार में बजाने के लिए बाबूजी ने उस गाने की सीडी खरीद ली थी। गाना बज गया।

क्रांति फिल्म का गाना है। ज़िंदगी की न टूटे लड़ी,प्यार कर ले,घड़ी दो घड़ी,लंबी लंबी उमरिया को छोड़ो,प्यार कर ले घड़ी दो घड़ी। लाख गहरा हो सागर तो क्या, प्यार से कुछ भी गहरा नहीं। वो इसे ज़रूर कई बार सुनते होंगे। आखिरी बार भी सुनने लगे।

रात का सफर था। हल्की हल्की बारिश हो रही थी। ज़िंदगी की लड़ी टूट गई। बाबूजी की ललकी कार मेरे भीतर रोज़ चलती है। मुझे लेकर अचानक मुड़ जाती है। रुक जाती है। घूमाने लगती है। आज सुबह मां से बात के दौरान एक बार फिर खुद से स्टार्ट हो गई। मां कह रही थी कि बाहर खड़ी है लेकिन मैं देख पा रहा था कि वो चल रही है।

48 comments:

वेद रत्न शुक्ल said...

जिंदगी की लड़ी कब टूट जाये कहा नहीं जा सकता। संस्मरण ने आँखें नम कर दीं।

Udan Tashtari said...

क्या कहें!!! आँख भर आई पढ़ते पढ़्ते. बाबू जी की याद को सादर नमन!

Rajesh Roshan said...

यह सच्‍चाई है. जिंदगी की, अनवरत चलने वाली....

निशान्त said...

"हमारे समाज में पिताओं की अजीब स्थिति है। ज़िंदगी भर यही सोच कर त्याग करते हैं कि बेटे बेटियां नौकरी कर लें। बुढ़ापे का सहारा सुनिश्चित हो जाए। लेकिन बुढ़ापे में खुश इस बात से होते हैं कि बेटे से या किसी से कुछ नहीं लिया। " - इस बात ने दिल को छू लिया. चलिए कमसे कम बाबूजी ने ख़ुद के लिए कुछ तो उन्होंने कुछ ख़रीदा.

ghughutibasuti said...

वे अपनी इच्छा तो पूरी कर पाए । यही क्या कम है ?
घुघूती बासूती

vipin dev tyagi said...

पिता का दर्द..मुझसे जुड़े कई सपनों का टूटना..कुछ नये सपनों का बुनना...फिर..उनके सच होने की जल्दी..बहुत जल्दी..है..मेरे पापा को..दिन-रात इसी चिंता में रहते हैं..आपको पढ़ा...दर्द सांझा हो गया..लगता है किसी ने अपनी ही किताब के पन्ने कहीं दूर खोल दिये हों..गला भर आया..बस और नहीं लिख सकता

Aadarsh Rathore said...

अंतिम लाइन पढ़ते ही वो आंसू कपोल तक ढुलक ही पड़ा जो पहले पैरा की शुरुआत से मचल रहा था। मैं न जाने क्यूं भावुक हो उठा। हमारे माता-पिता न जाने अपनी कितनी इच्छाओं का दमन कर सदा हमारे सुख के लिए सोचते रहते हैं। उम्र भर वो बलिदान देते हैं। ऐसे में उनकी न जाने कितनी ही इच्छाएं अधूरी रह जाती होंगी। छोटी सी तो जिदगी होती है, उसे भी वो अपने लिए न जीकर अपनी संतानों के नाम कर देते हैं। फिर एक वक्त आता है जब वो हमें उस वक्त बेसहारा कर के चले जाते हैं जब हमें उनकी सबसे ज्यादा ज़रूरत होती है। बेशक ये शाश्वत सत्य हो लेकिन है किसी के लिए भी मुश्किल है। कल्पना भर से ही डर लगता है।

Irfan Ali from princeton, New Jersey said...

Ravish, Ye baat such hai ki na janey kitni batey hoti hai to babuji mann me hi rakhtey hai. Hum sochtey hai ke shayad unhey kisi cheez ki zarurat nahi hai, lekin kitni hasratey unkey man me hoti hai, ye wohi jaantey hai. kah nahi saktey kisi se bhi. Aaj tak mai samajh nahi paya kyon? shayad samjhoonga us din jis din mai unkey mukam par hoonga... Jo jazbat tumney yahan likhey hai.. andar tak ghar kar gaye... Mujhey yaad aarahi hai apney babuji ki har wo baat. yaad aata hai jab mai US aa raha tha to kah rahey ke tumhey jo achha lagey to karo. airport chhodney aaye they, kuch kaha to sirf itna ke apna khayal rakhna. Samajh nahi saka mai ki kitna bada toofan machal raha tha unkey ander. is baar Eid par baat hui to sara paani bahar aa gaya... Eid hi nahi manayee unhoney. Mujhey ahsas hue ki yahan aakar kya paya maine? pata nahi shayad mai shabdo ko utna achha nahi piro sakta aur na hi apney jazbato ko us tarah explain kar sakta.. par suchmuch babuji ki har baat yaad aati hai. unka chehra webcam par dekhtey hi ankh se aansoo aa jatey hain.... aapka article padha to fir se bhavuk ho utha. Ravish, mere dost.. aapki akhri line (mai dekh pa raha hoon ke wo chal ahi hai) mahsoos karati hai aapkey pyaar ko babuji ke liye.

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

रवीश जी,
बाबुजी का किस्सा सुनकर फिर मेरे पापा जी याद आ गये -
उन जैसे सबल पुरुषार्थी इन्सानोँ से पाथेय ग्रहण करना हमारी खुशकिस्मती है -
आपको दीपावली पर स - परिवार शुभकामनाएँ ~~

Unknown said...

मेरे अंदर मेरे बाबूजी रहते हैं.... कई बार डर जाती हूँ...चले जायेंगे तो महसूस तो कर सकती हूँ...पर छू नहीं पाऊँगी..

vkrajanus said...

kuch din pehle maine apne orkut profile me add kiya hai "Do we live for ourselves or for others".
kabhi kabhi lagta hai ki hum apne liye bhi kabhi jeete hain.ek baar ghar ki jimmedaariya sambhalne ke baad lagta hi nahi ki hum apne liye bhi kabhi jeete hain.sayad jindagi jab khatam hone lagti hai tab hum sochte hain ki apne liye bhi ji liya jaaye.

रंजन (Ranjan) said...

भावुक

कुमार आलोक said...

समाज के कलंकित उन तथाकथित अमीरों पर गुस्सा आता है ..खुद तो हराम की कमाइ से कुछ भी खरीद लेते है ..और ये जानते हुए कि अमुक इमानदारी से अपनी गुजर बसर करता है उनपर तानों की बारिश करते है । व्यक्तित्व और सामाजिक प्रतिष्ठा में तो वे मुकाबला नही कर सकते इसलिये हराम की दौलत पर इतराकर दूसरें भलें लोगों को परेशान करते है ।
विडंबना नही ये त्याग है माता पिता का ..मेरी मां बिमार रहती है लेकिन हर सुबह या शाम जब मैं फोन करता हूं तो उसका एक ही प्रश्न रहता है ..खाना खाते हो ना समय पर ..दरवाजा ठिक से लगा कर सोना ..वही पंक्तियां जब वो हाथ पकडकर मुझे चलाना सिखाया था ।
बहुत ही भावुकता से भरा आपका पोस्ट है ।

Abhishek Ojha said...

भावुक कर देने वाली पोस्ट है... हरिवंश नारायण का लिखा एक संस्मरण पढ़ा था गोलंबर. स्कूल की किताब में... बस खूब पढता था इसे... ! वैसा ही कुछ फील हुआ.

अनुराग द्वारी said...

पढ़ते पढ़ते निदा फाज़ली की नज्म के साथ साथ बाबूजी का चेहरा सामने घूम गया ...
मैं तुम्हारी कब्र पर फातहा पढ़ने नहीं आया ...
तुम्हारे मौत की सच्ची खबर जिसने मुझे दी थी वो झूठा था वो झूठा था ...
वो तुम कब थे ... कोई सूखा हुआ पत्ता हवा से हिल के टूटा था
मेरी आंखों तुम्हारी मंजरों में कैद हैं अब तक ...
कहीं कुछ भी नहीं बदला ... तुम्हारे हाथ मेरी उंगलियों में सांस लेते हैं ...
मेरी आवाज़ में छुप कर तुम्हारा जे़हन रहता है ...
तुम्हारी कब्र पर जिसने तुम्हारा नाम लिखा है वो झूठा है ...
तुम्हारी कब्र में मैं दफन हूं ... तुम मुझ में जिन्दा हो ..
कभी फुर्सत मिले तो फातहा पढ़ने चले आना ...

वाकई हम जिस देश के हैं ... वहां पिता की मौत कभी नहीं होती ... हर बाप की मौत में बेटे की ही मौत होती है ..
बस शायद आंखों की नमी ऊंगलियों में चली आई है ...

ravindra vyas said...

ये पोस्ट मारक है। मैं अपने पिता को याद कर रहा हूं, जिन्हें गुजरे पांच साल हो गए। सोचा था मैं उनके लिए कार लूंगा, लेकिन इतना बचा नहीं पाया कि खरीद सकूं। लोन लेकर खरीदने की इच्छा नहीं होती। सोचा था मां के लिए कार खरीदूंगा। अब जून में मां भी चल बसी। अब बेटा पीछे लगा है कि कार खरीद लूं...
अब दीपावली आ गई। न पिता हैं, न मां है। कार लेकर क्या करूंगा।

kumar Dheeraj said...

दीवाली का त्योहार ऐसी उमंग लेकर आता है कि क्या गरीब क्या अमीर सभी इसमें डूब जाते है । इसके आगमन के साथ ही उजाले और खुशियों का समेटे हुए लक्ष्मी का आगमन हर दहलीज पर शुरू हो जाता है । पांच दिनो तक चलनेवाला यह महोत्सव हर धर और गली को रौशन कर डालता है । सच मानो तो रिश्तो को नयी जमीन देती है -दीवाली । नही तो शहरी संस्कृति में मिलना-जुलना आपसी-भाईचारा कहां शेष रह गयी है । निडा फाजली कहते है कि पहिये पर चढ़ चुके है ,घिसे जा रहे है हम । यही नज्म शहरी लोगो पर लागू होता है । महानगरो में ईसानी जीवन कुछ इसी तरह आगे बढ़ता है सुवह की पहली किरण के साथ ही काम पर निकलने का सिलसिला शुरू होता है ,दिन भर आंफिसो में काम रने की मारामारी और शाम को घर लौटने की जल्दी । ईंसान महानगरो में इतना मशीनी हो गया है कि उसे अपनो से मिलने का समय नही है । आपसी रिश्तो को निभाना भी कठिन होता जा रहा है । एसएमएस के जरिये ही वह अपने दोस्तो से मिलता है ,रिश्तेदारो से बातचीत करता है और थेक्स लिखकर अपना फजॆ पूरा करता है । लेकिन दीपावली एक एसा उत्सव है जो शहरी जीवन में भी लोगो के बीच खुशियां और चैन के लिए समय दे देता है । धनतेरस से शरू होने वाला यह भैया दूज के दिन जाकर समाप्त होता है । लेकिन शहरो में इतनी जगमगाहट के बावजूद गांवो की दीवाली का आनंद नही आ पाता है । गांव की गलियो में पटाखे छोड़ना और नुक्कड़ो पर दोस्तो के साथ चुहलवाजी करना आज भी याद आता है । पटाखो की सजी दुकानो पर हमलोग अपने मित्रो के साथ घंटो खड़े रहते थे और सोचते रहते थे विचार फैलाते रहते थे कि ये पटाखा इस बार खरीदना है । दीप जलाने के लिए दिये और मोमबत्ती को तैयार लिये बैठे रहते थे कि कब दिये जलाने का वक्त आएगा । उस दिन का याद कर आज भी दिल ख्याली पोलाव उमरने लगता है और गांव की याद तरोताजा हो जाती है । दीवाली आए और हर धर में खुशियां फैलाये यही कामना है ।

हिन्दुस्तानी एकेडेमी said...

अच्छी पोस्ट...।
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दीपावली की शुभकामनाएं।
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Shona said...

बहुत भावुक पोस्ट.

JC said...

Manav jeevan ka ek yeh bhi mord hota hai jahan pahunch ker her aadmi ki raftar kum ho jaati hai. Aur 'Shmashan vairag' ke saman her aadmi 'babuji', 'amma' adi priyatam rishtedaron ke kho dene per her bar sochne ke liye badhit ho jaata hai jeevan ke arth ko kuch der hi samajhne ke prayas hetu...

Kintu samaya kahan kisi ko samaya deta hai kisi ek vishaya per hi thahar jane ko. Bahte pani ke prabhav ki bhaanti her kisi ko 'kalchakra' baha le jata hai...kintu janmadin ki khushi prati varsha manane ke saman, (jab prithvi phir usi sthan per surya ki parikrama ker pahunch jati hai), kuch vaise hi jaise 'history repeats' her kisi ki ankhein apne itihas mein kuch (atma ke) khone ka gum, kuch (vastu) pane ki khushi ko pheeka ker deta hai...

ravishndtv said...

जेसी साहब
हर बात पर आपकी सार टिप्पणी दिलचस्प होती है।
सबकी बातों का सार और आध्यात्म मिलाकर आप अच्छा लघु प्रवचन प्रस्तुत कर देते हैं। आपकी बातें ज़रुर पढ़ता हूं। मेरी तमाम पोस्ट पर प्रतिक्रिया देने के लिए शुक्रिया।

वैसे सभी को जो मेरी पोस्ट पर आ कर पढ़ते हैं और प्रतिक्रिया देते हैं। आप सभी से एक रिश्ता बन गया है। लगता है रोज़ ही मिलते हैं।

पुनेठा said...

रवीश भाई दीपावली की बधाई

Unknown said...

पिता जब जिंदा होते हैं अपने बेटे के लिये दिन रात काम करते है।
इस उम्मीद में कि वो उससे बेहतर बने।
गुजर जाते हैं तो उनके सपने बेटे की आँखों में तैरने लगते हैं।
ये रिश्ता ऐसा है जो हर दिन मजबूत से मजबूततर होता जाता है।
पिता के नहीं रहने के बाद भी।
पिता होना इक एहसास भी है।
पिता को सिर्फ महसूस किया जा सकता है।
वो एक पेड की तरह हैं।
जिसका साया आपको सुकून देता है.

JC said...

Ravishji, Blog ke baarey mein mujhe TOI se pata chala. Aur, pehla blog mujhe saubhagyavash 'Temples' per dekhne ko mila. Maine blog writer ke mun mein uthte kai prashnon ko dekha jin per mein kai varshon se sochta aa raha tha.

Meine apne vichar likhne arambh kar diye. Is prakar 2005 se mein nirantar vibhinna desi aur videshi blogs per kuchh ek comments likhta aa raha hoon - 'Time pass' ke liye, ya apne mun mein uthte kai prashnon ke utter ke liye...

Us-se pehle mein TOI, NDTV per Big Fight, We The People adi per apni tippaniyan nirantar kai varshon tak e-mail se bheja karta tha (jab tak virakti nahin ho gayi!)...Aap se, athva apke blog se 'meri mulaqat' WTP ke karan hi hui, aur meine apni taang yahan bhi ardani shuru kardi:-)

Mein samajhta hoon ki ek blog ko nirantar chalaye rakhna saral nahin hai, is liye her blog owner badhai ka patra hai!

Deepavali ki shubh kamnayein sabhi ko! "Tamaso ma jyotirgama..."

एस. बी. सिंह said...

"बाबूजी की ललकी कार मेरे भीतर रोज़ चलती है। मुझे लेकर अचानक मुड़ जाती है। रुक जाती है। घूमाने लगती है। आज सुबह मां से बात के दौरान एक बार फिर खुद से स्टार्ट हो गई। मां कह रही थी कि बाहर खड़ी है लेकिन मैं देख पा रहा था कि वो चल रही है।"

क्या कहें रवीश भाई । सभी पिता एक जैसे ही होते हैं। जिन हांथों को सिर्फ़ देने की आदत पड़ी हो वे लेते नहीं। उनके सपने भले मुरझा जाए ,वे हमारे सपने नहीं टूटने देते। साधुवाद इस पोस्ट के लिए।

santoshsahi said...

रवीश जी हमारे समाज में माई और बाबूजी दो एसे अवतार होते हैं जिन्हें भगवान के रुप में देख सकते हैं।शायद भगवान से भी उँचा।बिना पूजा पाठ किए वो सब कुछ हम पर न्योछावर कर देते हैं ,बिना किसी इच्छा के। जब पूछों ,कहेंगे कमाना तो लौटा देना ।जब कमाने लगे पहली सैलेरी उठाई तो सोचा उस हाथ में रख दूं जिससे हमेशा लिया । जिद करने पर ले लिया पर कसमें दे कर वापस कर दिये। मुझे इसकी क्या जरुरत नौकरी है,पेंशन मिलेगा ही इससे ज्यादा की जरुरत नहीं है ,मेरे बाद भी तो ये सब तुमाहारा ही होगा। दरअसल मां बाबूजी हमसे सहायता की उम्मीद नहीं, सहृदयता की चाहत रखते हैं पर हम बदलते समाज और अपनी बेनामी जरुरतों की आड़ में उन्हें वो भी नहीं दे पाते । रवीश जी दिल को छूने वाले पोस्ट लिखने के लिए धन्यवाद।आपके ब्लाग पर गृह युद्ध के बाद की शांति का स्वागत है ।अवीनाश जी से बात हो तो कहिएगा की वो भी अपने ब्लाग पर शिजफार करें।धर्म की एसी –तैसी करवा रहें हैं ।धर्म की ज़मीन खरीदने के लिए कुछ बिल्डर मोहल्ला में तोप चला रहें हैं ।

JC said...

Ravishji, baat se baat nikalti hai, aur "baat niklegi to doore talak jayegi" shayar ki line Jagjit Singh ne ga di! Aur, Jagjit Singh ka nam lein to kai aur gazalein bhi fuvvare se pani ke saman nikal parein. Nida Fazli ko bhi sanyog se ek baar train mein Mumbai se Delhi side ke berth mein kisi anya lekhak se Jagjit Singh ka nam lete paya. Kintu unki koi bhi gazal yaad nahin ayi jis karan mein unse kuch bhi kahne mein apne ko asamarth paya...

Is dimag mein karan ek nam rah jata hai aam taur per gane wale ka, na ki shayar ka. Jis karan shayar ka kabhi-kabhi nam vaise hi 'aam' public ke dimag mein sthan nahin le pata jaise Taj dekh Sahahjahan ko to shyad sab, desi-videshi yad kar lete hain kintu banane wale hazaron ko shayad koi nahin janata...aur isi prakar Hinduon ne Ram ke naam ko Ram se barda bataya...moksha prapti hetu...

Nikhil said...

पिता को याद करना बड़ा सुकून देता है...अजीब भी लगता है....वो भी तब जब मां को याद करना ज़्यादा साहित्यिक लगता है..
मैंने भी पिता के साथ अपने अनुभव बांटे हैं...नज़र डालें....
http://merekavimitra.blogspot.com/2008/06/blog-post_08.html

निखिल

Nikhil said...

jc जी,
आप अपनी अच्छी टिप्पणियां हिंदी में टाइप क्यूं नहीं करते.....ये बेहद आसान है....अगर दिक्कत आये तो इस लिंक का सहारा लें...
www.hindyugm.com

sushant jha said...

मर्मश््पर्शी....

JC said...

'गिरी' जी सुझाव के लिए धन्यवाद!
रविशजी इसे कहते हैं सत्संग का लाभ!
कुछ समय लगेगा, किंतु अभ्यास से तो मूर्ख भी सुजान हो जाता है!
पत्थर पर रस्सी से भी निशान बन जाने जैसे!
प्रयास करूँगा हिन्दी में टिपण्णी लिखने का!

ऐसा प्रतीत होता है की समय अधिक लगेगा किंतु!
- जे सी जोशी

alok said...

ऐसे संस्मरण अब कहाँ पढने को मिलते हैं. ऐसा लगा जैसे कोई भूली बिसरी कहानी पढ़ ली हो. अपने माता पिता के प्रति ऐसी भावना व्यक्त करती कहानी पढ़ के आँख के कोने में padi हुयी बूँद निकल पड़ी. - आलोक

alok said...

रविश जी
अब शायद ही कोई और न्यूज़ चैनल देखने के लिए रिमोट के बटन दबते ही नही. सिर्फ़ एन दी टी वि से ही समाचार की भूख शांत होती है.

JC said...

निखिल जी, मुझे रहस्यवाद अधिक आकर्षित किया! मैंने गीता पढ़ कर सोचा और जाना कि हिन्दी भाषा में सार अथवा रस, या सत्व और सत्य, पर्यायवाची शब्द हैं! सत्यम शिवम् सुंदरम को इस कारन मैंने रीडिंग बेत्वीन लाइन समझा! इस दृष्टिकोण से फिर कहानियाँ और कथाएँ कुछ नए रूप में दिखायी देने लगीं! और आनंद कि अनुभूति हुई जैसे क्रोस्स्वोर्ड में शब्द पहले कठिन लगते हैं, किंतु जब खाने भरने लगते हैं तब भी आनंद कि अनुभूति होती है, खास तौर पर जब अंत निकट होता है और सब शब्द आसानी से मिलते लगते हैं! शायद वैसे ही जैसे उपर उछाला हुआ पत्थर नीचे पहुँच अधिक गतिमान होता लगता है!

JC said...

आरंभ में मुझे विचार आया कि मुझे साधारण से प्रतीत होने वाली वस्तुओं की आँखों से मानव को देखना चाहिए!

धूलि कणों को बच्चों के सामान पाया! फर्श पर झाडू मारो तो किसी ऊँचे स्थान पर जा बैठते हैं! यहाँ तक कि पक्षी समान वायु मंडल में भी व्याप्त दीखते हैं, इधर से उधर विचरते! मेरे साथ भी बच्चों की भांति गोद में जैसे, अथवा अपने कई सारे मित्रों समेत बस में सवार जैसे यात्रा करते - देश विदेश में भी! और वो भी बिना टिकेट!

JC said...

जब मैंने इच्छा व्यक्त की प्रकृति के रहस्य खोजने की, जब में अस्सी के दशक में असम में पत्र लिखने बैठा तो एक मच्छर ने मुझे चौंका दिया! वो मेरे हाथ पर बैठ गया! चालीस साल से में मच्छर मारता आ रहा था! मेरा बांया हाथ उठा! किंतु उसी समय मेरा मन मुझसे बोला क्यूँ मारते हो? आज तक तुम्हें मलेरिया नहीं हुआ, फिर क्यूँ दूसरों के बहकावे में आ एक तुच्छ जीव की हत्या करते हो? तुम तो एक वैज्ञानिक हो. और एक लकीर के फकीर की तरह व्यवहार करते हो!

मेरा बांया हाथ नीचे आगया! में उससे मन ही मन बोला कि टंकी फुल कर लो! वो आराम से घूमता हुआ आगे बढ़ा और मेरे अंगूठे पर एक स्थान पर बैठ गया!

पहले मच्छर को तुंरत भागते देखा था! किंतु यह गुरु तो खून पीता ही चला गया! १० मिनट हो गए पर जाने का नाम ही नहीं ले रहा था! मैंने वादा किया था, हाथ भी नहीं हिला सकता था, सूर्यवंशी राजा समान!

फिर एक समय उसे मेज पर देखा! और जब वो आगे चला तो ऐसा लगा कोई शराबी हो, नशे में धुत्त!

तब से अब तक कोई भी मच्छर, कहीं भी, मेरे से खून ऐसे पीता है जैसे उसे भी मैंने टंकी फुल करने कि इजाज़त दे रखी हो!

नीलिमा सुखीजा अरोड़ा said...

BEHAD BHAVUK POST

अनुपम अग्रवाल said...

ज़िंदगी भर यही सोच कर त्याग करते हैं कि बेटे बेटियां नौकरी कर लें। बुढ़ापे का सहारा सुनिश्चित हो जाए। लेकिन बुढ़ापे में खुश इस बात से होते हैं कि बेटे से या किसी से कुछ नहीं लिया। फिक्स्ड डिपाज़िट के साथ भी यही होता है। बुरे वक्त के लिए बचाते हैं मगर खुश इस बात से नहीं होते कि बुरे वक्त में काम आ गया बल्कि इस बात से होते हैं कि उसकी ज़रूरत नहीं पड़ी।
ऐसे ही अधिकांश घरों की कहानी है
छ्प गयी यहाँ वो आपकी जुबानी है

anil yadav said...

रवीश जी आपकी इस मर्मस्पर्शी पोस्ट को पढकर एक कविता याद आ गयी जो कि शायद बहुत पहले पढी थी....लेखक का नाम नही याद आ रहा ....
घर की बुनियादें बामों दर थें बाबू जी....
सबको बांधे रखने वाला खास हुनर थें बाबू जी....
अब तो उस सूने माथे पर कोरेपन की चादर है....
अम्मा जी की सब सज धज सब जेवर थें बाबू जी....
तीन मोहल्लों में उन जैसी कद काठी का कोई न था....
अच्छे खासे ऊंचे पूरे कद्दावर थें बाबू जी....
कभी हथेली की सूजन कभी बड़ा सा हांथ खर्च थें बाबू जी....
मेरे मन का आधा साहस आधा डर थें बाबू जी....

विधुल्लता said...

post ko der se dekh pai hoon pitaa ki yaaden hi ek din jindgi main honslaa ban kar udaan bharti hai,saadar naman

विधुल्लता said...

post ko der se dekh pai hoon pitaa ki yaaden hi ek din jindgi main honslaa ban kar udaan bharti hai,saadar naman

Pawan Nara said...
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rawatji said...

bete-betiya sayad kam hi sochate honge ki unke pita bhi koi sapna dekhte honge!

Anonymous said...

Murjhate hue samvednaon ko jagane k liye sadhuvad!!!

Amit Sharma said...

Great. Simply great. I am choked with emotions to say anything more than that.

Dankiya said...

bahut bhawuk post..hai Ravish ji..!!
aapke blog par pehla cooment hai..wo bhi tab jab abhi kuchh char mahine pehle hi maine apne pita ko khoya hai...

aakhari waqt mein unki yadasgt bhi jati rahi..unke liye kuchh likha tha..

Suno Na papa….
Tumhari ankhon mein akhri waqt bhi maine dekhi thi ek Hasrat
Jo zindagi ki katai nahin thi…

wo Neem Behoshi wo khamoshi…
Wo sookhe lab pe na bol pane ki
Be-basi si..

Main Janta hoon Tumhare kanon mein Darj honge wo sare chehre

main Janta hoon tumhari ankhon mein darj hongi
wo sari awaazen…wo pukaren…`suno Na Papa.. utho na Papa,

wo Monitor pe ukhadti sehmi si Tang Sanson mein tumko dekha

Tunhare hathon ki wo hurarat…
jo zindagi ka saboot thin bas

Na jane kisko wo dhundhti si Tumhari ankhen…
Mere khayalon mein ghoomati hain…

Dankiya said...

bahut bhavuk post hai Ravish ji..
babuji ko sadar Nanman..

aapke blog par ye mera pehla cooment hai..wo bhi tab jab abhi kuchh char mahinon pehle maine apne pitaji ko khoya hai..aakhari waqt unki yaddasht bhi jati rahi..
unke liye kuchh likha tha

Suno Na papa….
Tumhari ankhon mein akhri waqt bhi maine dekhi thi ek Hasrat
Jo zindagi ki katai nahin thi…

wo Neem Behoshi wo khamoshi…

Wo sookhe lab pe na bol pane ki Be-basi si

Main Janta hoon Tumhare kanon mein Darj honge wo sare chehre

main Janta hoon tumhari ankhon mein darj hongi
wo sari awaazen…wo pukaren…`suno Na Papa.. utho na Papa,

wo Monitor pe ukhadti sehmi si Tang Sanson mein tumko dekha

Tunhare hathon ki wo hurarat…jo zindagi ka saboot thin bas

Na jane kisko wo dhundhti si Tumhari ankhen…
Mere khayalon mein ghoomati hain…

Dankiya said...

bahut bhavuk post hai Ravish ji..
babuji ko sadar Nanman..

aapke blog par ye mera pehla cooment hai..wo bhi tab jab abhi kuchh char mahinon pehle maine apne pitaji ko khoya hai..aakhari waqt unki yaddasht bhi jati rahi..
unke liye kuchh likha tha

Suno Na papa….
Tumhari ankhon mein akhri waqt bhi maine dekhi thi ek Hasrat
Jo zindagi ki katai nahin thi…

wo Neem Behoshi wo khamoshi…

Wo sookhe lab pe na bol pane ki Be-basi si

Main Janta hoon Tumhare kanon mein Darj honge wo sare chehre

main Janta hoon tumhari ankhon mein darj hongi
wo sari awaazen…wo pukaren…`suno Na Papa.. utho na Papa,

wo Monitor pe ukhadti sehmi si Tang Sanson mein tumko dekha

Tunhare hathon ki wo hurarat…jo zindagi ka saboot thin bas

Na jane kisko wo dhundhti si Tumhari ankhen…
Mere khayalon mein ghoomati hain…