फ्रिज़ सफेद ही अच्छा लगता है । उन्नीस सौ चौरासी की एक दोपहर हमारे घर बैठी पड़ोस की चाची ने कहा था । फ्रिज़ आ रहा था इसलिए कई लोग पिताजी के साथ बैठकर उसके रंग पर चर्चा कर रहे थे । क्योंकि हममें से किसी को नहीं मालूम था कि फ्रिज़ सफेद ही अच्छा लगता है । पिताजी गांव से लौटे थे । गेहूं और गन्ने का पैसा मिला था । थोड़ा बहुत पैसा पड़ोस के चाचा जी से भी लिया गया था । फ्रिज़ आएगा । अब और इंतज़ार नहीं हो सकता । इसके पहले हमारा भी सिर्फ दूसरों के घरों में फ्रिज़ देखने का अनुभव था । मालूम नहीं था कि फ्रिज़ में रखे खाने का स्वाद कैसा होता है । पानी ठंडा होता है इसका रोमांच था लेकिन स्वाद नहीं । ठंडा मतलब सुराही का पानी होता था । जिसे हम हर गर्मियों में पटना के गंगा नदी के किनारे बिकने वाली सुराही के ढेरों में से चुन कर लाते थे । हमारे घर अब फ्रिज़ आने वाला था । सफेद, लाल और हल्का आसमानी । ब्रांड गोदरेज और केल्विनेटर । और भी होंगे मगर पता नहीं । खैर तय हुआ कि सफेद नहीं आसमानी आएगा ।
क्यों आ रहा था फ्रिज़ ? पड़ोस में किसी के पास नहीं था । लिहाज़ा दबाव भी नहीं था कि उनके यहां है और हमारे यहां नहीं । फ्रिज़ को लेकर हीनभावना नहीं थी । तभी अमरीका में रहने वाले हमारे दूर के रिश्तेदार के दूर के संबंधी आए । उनका हमारे घर आना हुआ । वो इस बात से हैरान थे कि हमारे यहां फ्रिज़ नहीं है । पिताजी को मालूम नहीं था कि इसके क्या उपयोग हैं ? रिश्तेदार तो चले गए मगर पिताजी के ज़हन में फ्रिज़ खरीदना एक लक्ष्य बन गया था । उनके पास चवालीस सौ रुपये जमा हो गए थे । खुशी इतनी थी मानो चांद पर ज़मीन बुक करने जा रहे हों । हम सब खुश थे । कहां रखेंगे इसकी कोई जगह नहीं थी । छोटे छोटे कमरे और छोटी रसोई । हम सब कई भाई बहन दरवाज़े पर खड़े थे । ठेले पर लाद कर आसमानी फ्रिज़ घर आ रहा था । जो छोटे थे बीच बीच में बाहर निकल कर अपडेट देते थे कि ठेला इतना करीब आ गया है । फलां के घर के पास है । हमारी कौतुहल में धीरे धीरे बाकी लोग भी आ गए । अब कोई दरवाज़े पर नहीं खड़ा था । सब गेट पर आ गए थे । उसके आते ही मेरी एक बहन ने पड़ोस की चाची को आवाज़ दी । चाची जल्दी आइये, फ्रिज़ आ गया है । वो भागती हुई आईं । वो भी बहुत खुश । जैसे उनके घर में भी फ्रिज़ आ रहा है । उधार के पैसे में उनका भी हिस्सा था ।
फ्रिज़ आ गया । रखें कहा । खूब मंत्रणा । नतीजा कि बाहर बरामदे में ही जगह बचती है । सलाह कि धूप से रंग हल्का हो जाएगा । फिर उसके लिए चीक वाले को बुलाया गया कि भाई जल्दी से बारामदे को ढंक दो । फ्रिज़ को धूप न लगे । फ्रिज़ ऑन हुआ तो कम से कम पंद्रह लोगों ने दरवाज़ा खोल कर देखा कि अच्छा ऑन हो गया है । ठंडा लगता है क्या । फ्रिज़र में हाथ डालने से हाथ जम जाएगा ? कश्मीर में इतनी ही ठंड होती होगी क्या जितनी फ्रिज़र में ? तभी कनेक्शन वाले ने बोला इसमें कुछ रखेंगे तब तो पता चलेगा । क्या रखें ? उसने कहा खाना सब्ज़ी ये सब रखिये । पर ये सब तो ख़त्म हो चुका है । सब्ज़ी तो रोज़ आती है और रोज़ बनती है । आलू बचा है उसे रख सकते हैं क्या ? बोला आलू नहीं । जो खराब हो सकता है उसे रखिये । उसने समझाया कि अब सुबह शाम हरी सब्ज़ी लाने की ज़रूरत नहीं । एक बार खरीद कर रख दीजिए । बस पिताजी विद्रोह कर गए । यह नहीं होगा । बासी सब्ज़ी कैसे खायेंगे । फ्रिज़ को लेकर सांस्कृतिक टकराव शुरू हो गया । लेकिन मेरे घर में ऐसा कुछ नहीं मिला जिसे तत्काल फ्रिज़ रख सकें । खाना पंद्रह लोगों के परिवार में कहां बचता है । फ्रिज़ में एक जग में पानी भर कर रखा गया । कनेक्शनवाले ने कहा पानी रखने का बोतल आता है ले आइयेगा । इस ट्रे में बर्फ जमाइयेगा । बोतल आ गया । मगर उसके अलावा अन्य चीज़ों के रखने की समस्या का समाधान नहीं हुआ । कोई सामान ही नहीं होता था । बहुत दिनों तक फ्रिज़ का ठंडा पानी पीते रहे । पड़ोसियों के घर मेहमान आने पर ठंडा पानी जाता रहा ।
एक दिन एक ऐसे रिश्तेदार का आना हुआ जिनके पास कई साल से फ्रिज़ था । उन्होंने फ्रिज़ खोल दिया । उसमें सिर्फ बोतल भरा था । बर्तन कटोरे में पानी था । वो हंसने लगे । बोले आप लोगों को फ्रिज़ में क्या रखा जाता है यहीं नहीं मालूम । उन्हें हम पर हंसने की आदत थी । सो बुरा लगा । फ्रिज़ का नहीं होना एक सामाजिक आर्थिक अंतर था मगर फ्रिज़ में किसी चीज़ का नहीं होना अलग सामाजिक आर्थिक अंतर । फ्रिज के खालीपन ने हमारी हैसियत एक बार फिर तय कर दी । या गिरा दी । हम सब आहत थे । ताजा खाना खाने वाले हम सब फ्रिज़ की गोद भऱने के लिए कुछ बचाने लगे । ताकि उसमें रखा जा सके । साहूकार से पूछ कर कुछ ऐसी चीज़े मेरे घर में पहली बार आईं जो नहीं आती थी । सॉस, जैम और जेली । यह खाने के लिए कम रखने के लिए ज़्यादा आते थे । धीरे धीरे इन्हें खाने भी लगे । हमारे घर में सुबह शाम सब्ज़ी कम खरीदी जाने लगी । ताकि फ्रिज़ भरा रहे । और हमारा सामाजिक सम्मान बचा रहे । खाली रहने पर अच्छा नहीं लगता है । यह अहसास होने लगा था । इसीलिए फ्रिज़ के दरवाज़े का एंगल ऐसा रखा गया कि खुलते वक्त कोई झांक कर देख न ले कि इसमें क्या रखा है । फ्रिज़ हमारी आबरू का हिस्सा बन गया । और भी घरों में मैंने देखा है फ्रिज़ के दरवाज़े के खुलने की दिशा को लेकर काफी मंत्रणा होती है । सब ध्यान रखते हैं कि मेहमान यह न देख लें कि फ्रिज़ में क्या रखा है ? मैं रंग की बात कर रहा था लेकिन कह गया कहानी । उपभोक्ता चीज़ों के सामाजिक जीवन से जुड़ने की कहानी । आज कल बाज़ार में फ्रिज़ कई रंगों में आता है । हरा, धानी, नीला, गुलाबी । सफेद कम । वो तो दवा की दुकान में या अस्पताल में रखे जाने वाले फ्रिज़ होता है ।
इस लेख के साथ टिप्पणी भी पढ़े । उनमें जो संस्मरण हैं उससे यह लेख और समृद्ध होता है । बल्कि टिप्पणी पढने के बाद लगेगा कि इस बारे में कितना कुछ याद किया जा सकता है । कहा जा सकता है ।
क्यों आ रहा था फ्रिज़ ? पड़ोस में किसी के पास नहीं था । लिहाज़ा दबाव भी नहीं था कि उनके यहां है और हमारे यहां नहीं । फ्रिज़ को लेकर हीनभावना नहीं थी । तभी अमरीका में रहने वाले हमारे दूर के रिश्तेदार के दूर के संबंधी आए । उनका हमारे घर आना हुआ । वो इस बात से हैरान थे कि हमारे यहां फ्रिज़ नहीं है । पिताजी को मालूम नहीं था कि इसके क्या उपयोग हैं ? रिश्तेदार तो चले गए मगर पिताजी के ज़हन में फ्रिज़ खरीदना एक लक्ष्य बन गया था । उनके पास चवालीस सौ रुपये जमा हो गए थे । खुशी इतनी थी मानो चांद पर ज़मीन बुक करने जा रहे हों । हम सब खुश थे । कहां रखेंगे इसकी कोई जगह नहीं थी । छोटे छोटे कमरे और छोटी रसोई । हम सब कई भाई बहन दरवाज़े पर खड़े थे । ठेले पर लाद कर आसमानी फ्रिज़ घर आ रहा था । जो छोटे थे बीच बीच में बाहर निकल कर अपडेट देते थे कि ठेला इतना करीब आ गया है । फलां के घर के पास है । हमारी कौतुहल में धीरे धीरे बाकी लोग भी आ गए । अब कोई दरवाज़े पर नहीं खड़ा था । सब गेट पर आ गए थे । उसके आते ही मेरी एक बहन ने पड़ोस की चाची को आवाज़ दी । चाची जल्दी आइये, फ्रिज़ आ गया है । वो भागती हुई आईं । वो भी बहुत खुश । जैसे उनके घर में भी फ्रिज़ आ रहा है । उधार के पैसे में उनका भी हिस्सा था ।
फ्रिज़ आ गया । रखें कहा । खूब मंत्रणा । नतीजा कि बाहर बरामदे में ही जगह बचती है । सलाह कि धूप से रंग हल्का हो जाएगा । फिर उसके लिए चीक वाले को बुलाया गया कि भाई जल्दी से बारामदे को ढंक दो । फ्रिज़ को धूप न लगे । फ्रिज़ ऑन हुआ तो कम से कम पंद्रह लोगों ने दरवाज़ा खोल कर देखा कि अच्छा ऑन हो गया है । ठंडा लगता है क्या । फ्रिज़र में हाथ डालने से हाथ जम जाएगा ? कश्मीर में इतनी ही ठंड होती होगी क्या जितनी फ्रिज़र में ? तभी कनेक्शन वाले ने बोला इसमें कुछ रखेंगे तब तो पता चलेगा । क्या रखें ? उसने कहा खाना सब्ज़ी ये सब रखिये । पर ये सब तो ख़त्म हो चुका है । सब्ज़ी तो रोज़ आती है और रोज़ बनती है । आलू बचा है उसे रख सकते हैं क्या ? बोला आलू नहीं । जो खराब हो सकता है उसे रखिये । उसने समझाया कि अब सुबह शाम हरी सब्ज़ी लाने की ज़रूरत नहीं । एक बार खरीद कर रख दीजिए । बस पिताजी विद्रोह कर गए । यह नहीं होगा । बासी सब्ज़ी कैसे खायेंगे । फ्रिज़ को लेकर सांस्कृतिक टकराव शुरू हो गया । लेकिन मेरे घर में ऐसा कुछ नहीं मिला जिसे तत्काल फ्रिज़ रख सकें । खाना पंद्रह लोगों के परिवार में कहां बचता है । फ्रिज़ में एक जग में पानी भर कर रखा गया । कनेक्शनवाले ने कहा पानी रखने का बोतल आता है ले आइयेगा । इस ट्रे में बर्फ जमाइयेगा । बोतल आ गया । मगर उसके अलावा अन्य चीज़ों के रखने की समस्या का समाधान नहीं हुआ । कोई सामान ही नहीं होता था । बहुत दिनों तक फ्रिज़ का ठंडा पानी पीते रहे । पड़ोसियों के घर मेहमान आने पर ठंडा पानी जाता रहा ।
एक दिन एक ऐसे रिश्तेदार का आना हुआ जिनके पास कई साल से फ्रिज़ था । उन्होंने फ्रिज़ खोल दिया । उसमें सिर्फ बोतल भरा था । बर्तन कटोरे में पानी था । वो हंसने लगे । बोले आप लोगों को फ्रिज़ में क्या रखा जाता है यहीं नहीं मालूम । उन्हें हम पर हंसने की आदत थी । सो बुरा लगा । फ्रिज़ का नहीं होना एक सामाजिक आर्थिक अंतर था मगर फ्रिज़ में किसी चीज़ का नहीं होना अलग सामाजिक आर्थिक अंतर । फ्रिज के खालीपन ने हमारी हैसियत एक बार फिर तय कर दी । या गिरा दी । हम सब आहत थे । ताजा खाना खाने वाले हम सब फ्रिज़ की गोद भऱने के लिए कुछ बचाने लगे । ताकि उसमें रखा जा सके । साहूकार से पूछ कर कुछ ऐसी चीज़े मेरे घर में पहली बार आईं जो नहीं आती थी । सॉस, जैम और जेली । यह खाने के लिए कम रखने के लिए ज़्यादा आते थे । धीरे धीरे इन्हें खाने भी लगे । हमारे घर में सुबह शाम सब्ज़ी कम खरीदी जाने लगी । ताकि फ्रिज़ भरा रहे । और हमारा सामाजिक सम्मान बचा रहे । खाली रहने पर अच्छा नहीं लगता है । यह अहसास होने लगा था । इसीलिए फ्रिज़ के दरवाज़े का एंगल ऐसा रखा गया कि खुलते वक्त कोई झांक कर देख न ले कि इसमें क्या रखा है । फ्रिज़ हमारी आबरू का हिस्सा बन गया । और भी घरों में मैंने देखा है फ्रिज़ के दरवाज़े के खुलने की दिशा को लेकर काफी मंत्रणा होती है । सब ध्यान रखते हैं कि मेहमान यह न देख लें कि फ्रिज़ में क्या रखा है ? मैं रंग की बात कर रहा था लेकिन कह गया कहानी । उपभोक्ता चीज़ों के सामाजिक जीवन से जुड़ने की कहानी । आज कल बाज़ार में फ्रिज़ कई रंगों में आता है । हरा, धानी, नीला, गुलाबी । सफेद कम । वो तो दवा की दुकान में या अस्पताल में रखे जाने वाले फ्रिज़ होता है ।
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33 comments:
मेरे भाई अब इतनी भी मत छोडो जो हज्म ना हॊ ८४ मे बस सफ़ेद रंग ही आता था ये वो जमाना था जब फ़्रिज बैठक मे रखा जाता था फ़्रिज की ये रंगीनिया ९० के बाद शुरु हुई और आज भी लिमिटेड रंग ही है
अद्भुत है भाई रवीश..
नीरजा जी अगर रवीश छोड़ भी रहे हैं तो भी कोई बात नहीं.. आनन्द को तौलिये.. हमारी स्मृतियां कभी भी वस्तुगत नहीं होती.. उनमें तमाम दूसरी चीज़ों का आच्छादन होता है.. जैसा हुआ था ठीक वैसे ही हम याद नहीं रखते उसे.. हर व्यक्ति एक ही बात को अपने निराले ढंग से याद रखता है.. एक सी डी और हम मनुष्यों में ये फ़र्क है..
मेरा तो खयाल है कि थोड़ी आप भी छोड़िये..
बहुत खूब रवीश जी . आपने तो बहुत सी कहानियों और घटनाओं की याद दिला दी . पहले याद आयी रेणू की "पंचलाईट" जिसमें एक पैट्रोमेक्स के खरीदे जाने का अच्छा चित्रण है ..फिर याद आयी एक ओर कहानी "परदा" जिसमें परदा घर की इज्जत का प्रतीक बन गया था.. कुछ घटनाऎं भी याद आयी लेकिन वो फिर कभी .. बहुत अच्छा लेख मजा आ गया.लेकिन आज ये फ्रिज पुराण क्यों ..
सफेद फ्रिज के बारे में आपकी बात ठीक नहीं है ये केवल अस्पतालों या दवाइयों की दुकानों में ही नही मिलता घरों में भी मिलता है .सफेद फ्रिज मुझे भी पसंद है और मेरे घर में भी वही है.
"...ताजा खाना खाने वाले हम सब फ्रिज़ की गोद भऱने के लिए कुछ बचाने लगे । ताकि उसमें रखा जा सके । ..."
हाँ, तब बीयर केन और पेप्सी की बोतलें इतनी लोकप्रिय और सर्वसुलभ भी नहीं थीं.
पर, क्या आज भी ऐसी स्थिति है? आज की स्थिति आपने बयान नहीं की...
ओय होय, ओय होय, क्या बात है!.. बहुत दिनों से ऐसी अच्छी कविता नहीं पढ़ी थी. मन शीतल करवा दिया आपने. वैसे सबकॉनशस में कहीं यह बात दबी-छिपी रही होगी कि आनेवाले वर्षों में आप सफेद फ़्रिज पर लिखनेवाले हैं, जभी मैंने एक सफेद फ़्रिज ले रख छोड़ा था. अभी भी अंदर सिर्फ पानी ही रहता है. आप आइये कभी, पिलवाकर मन शीतल करते हैं!
रवीश भाई,
मध्यवर्गीय परिवारों में टीवी-फ्रिज़ जैसी चीजें हमेशा से एक वस्तु से ज्यादा रहीं हैं। आपने बड़ी खूबसूरती से उनसे जुड़ी भावनाओं को उकेरा है। जरा इस टीवी और वीडियो पुराण पर भी नज़र मार लें निश्चित तौर पर ये आपको अपने दिल के करीब लगेगा।
फ्रिज के बहाने आपने तमाम पहलुऒं को छुआ। बदलते समय के साथ बदलती सोच। बाजार के अनुसार अपने को बदलने का दबाव। अद्भुत लेख। बहुत अच्छा लगा। बधाई!
घटनाक्रम की जीवंत प्रस्तुति की है आपने।
वैसे एक बात बता दें आपको विश्वास करिएगा, हमरे पास अब भी नहीं है फ़्रिज। सच कर रहे हैं।
वाकई काफी कुछ याद दिला दिया इस लेख के बहाने से..
८० के दशक में जब गांव मोहल्ले में टी.वी. आता तो भी कुछ ऐसी ही भीड जमा होती थी...
बचपन की याद दिला दी...
Ek baar phir apne taaja anubhavon par loutiye.
क्या चीज याद दिला दी आपने......पुराने दिन याद आ गये जब हमारे घर मे भी फ्रिज आया था । जैसा आपने लिखा वैसा तो नही; पर उस से कुछ कम भी नही हुआ था हमारे घर मे....
उम्मीद करता हू कि अब आप अगला पुराण टीवी पर लिखेगे.....उन दिनो की याद करते हुये जब पूरा मोहल्ला एकजुट होकर रविवार सुबह को सारे जरुरी-गैरजरूरी काम छोडकर भक्तिभाव से टीवी को और टीवी पर आने वाले कार्यक्रम को देखता था।
लेकिन टीवी के रंग को लेकर जो बहस होती थी वो उसके श्वेतश्याम या रंगीन होने को होती थी न कि सफेद-नीले की।
:)
इ रवीश्वा तो पूरी तरह नॉस्टलिया गया रे। पूरा बारीकी से एक एक बात लिख डाला। लेख पढकर हम भी अपना गुज़रा हुआ ज़माना याद करने लगे।
बहुत सुंदर संस्मरण है। पुराने दिनों की याद ताजा हो आई। मेरे बचपन और युवावस्था में घर में फ्रिज नहीं हुआ करता था। मां के घर तो आज भी नहीं है। कहती हैं, पानी ठंडा करने के लिए 10,000 रु. क्या खर्च करना। तुम्हारी मति मारी गई है। लेकिन मुझे याद है, बचपन में फ्रिज कितनी बड़ी चीज हुआ करती थी। एक किस्म का स्टेटस सिंबल। जिन भी पड़ोसियों और रिश्तेदारों के घर में फ्रिज आया, किसी उत्सव से कम नहीं था फ्रिज का आना। स्कूल में लड़कियां फ्रिज के बारे में बातें करती थीं, ठंडे पानी और फ्रिज की आइसक्रीम के किस्से सुनाए जाते। फ्रिज वालियों की हैसियत अपने आप ऊंची हो जाती थी। लग रहा है, बहुत सच्ची-सच्ची बात कही गई है।
बहुत अच्छे संस्मरण सामने आ रहे हैं । मज़ा आ रहा है । आप सब को बधाई । इस कहानी में अपना चेहरा देखने के लिए । फ्रिज़ एक घर भी है । उसमें सारा घर रहता है । हर फ्रिज़ कुछ कहता है ।
आपके संस्मरण और स्मृतियाँ पढ़कर अच्छा लगा
बहुत अच्छा लिखा है....
आहा, ठंडा-ठंडा कूल-कूल...मन शीतल कर दिया आपने. आनंद-आनंद...तपती गर्मी में मानो सुराही का पानी पी लिया हो...अब तो हम सुराही को फैंसी करते हैं...फ्रिज का हर जगह मिलता है. फ्रिज की लगी ठंडी पैप्सी पीजिए और मौज कीजिए...और लिखिए आपने एक ऐसी चीज़ लिख मारी है जो ब्लॉगरों को ऐसे अनेक संस्मरण लिखने की प्रेरणा देगी, मसलन वीसीआर भाड़े पर लाकर फिल्म देखना, पहला टीवी, पहला लूना वग़ैरह-वगैरह...एक शानदार रचना
रवीश, फ्रिज से पहले रसोई गैस भी तो आई होगी, शायद चार साल पहले। भगवान के आले में सुबह-शाम के दीपक की तरह उस पर बाबूजी के लिये दो वक्त चाय बनती होगी, शायद ज्यादातर घरों में। गैस पर बनी चाय में से हिस्सा लेने के लिये डंडी टूटे कप लेकर बालगोपाल भी लाइन लगाते होंगे शायद मेरे घर की तरह। पडोस की वर्मा ताई आ गईं तो मां बिना चाय पिये कैसे जाने देती होगी। ज्यादा भी नहीं तो चार बार तो कहती होंगी, रुकिये ना भाभी ऐसे कैसे जा रही हैं। चाय बना रही हूं, पीकर जाएयेगा। गैस पर देर ही कितनी लगती है। कल गाजर का हलुआ भी बनाया था गैस पर, बड़ी जल्दी बन गया. कढ़ाई भी काली नहीं हुई।
यार क्या याद दिला दिया, रवीश।
Ravish ji ek choti si rochak kahani hai..mere ghar ke paas ke gaon ki..
saal yaad nahi lekin sunta aa reha hoon bachpan se...
mere ghar ke paas hai ek gaon Motiya-Dumariya...gaon mein pehli baar petromax aana tha...Bhagalpur-Mandarhill local train se log aa rehe the petromax lekar..puta nahi kitna bada hoga..durjan bhar logon ne apni bailgarhi taiyaar ki aur nikal parhe...patromax ka aakar dekha to..puta chala aree yeh to ek cycle par le ja sakte the...
mere hisaab se baat bahut poorani nahi hai...lekin in salon mein uss gaon mein durjan bhar IAS officer hain...sabse paisa wala gaon hai woh uss jegah..jahan se bahut sare log america aur england mein jakar bus gaye hain...
samay ka takaza hai..ravish ji apke ghar mein fridge aa gaya..lekin abhi jub mein bihar gaya wahan BPL ke liye survery ho reha tha...light to hain nahi gaon mein...hum aangan mein andhere mein kha rehe the...ab iss beech puta nahi mera parivar agar BPL mein aata hai ki nahi...agar aisa nahi huwa to ghar jane par andhere mein khana padega...aaj sheharon ke log khush ho rehe hain.Gaon ke log abhi bhi andhere mein rehne ko majboor hain...
salon pehle jub mein gaon se aaya main makan malik se paani ki thandi botlein lekar pani peeta tha..makan malik bhi diler the...shaam hone par jate to ek aad peg whisky ka bhi meri taraf barha dete...lekin jub mein barabar jane laga to peene pilane ka silsila khutm ho gaya..
Unko mere upar taras aa gayee..woh mujhe apne saath car mein bithakar ek market mein le gaye...jahan unka ek poorana client tha...aur mere liye 1996 ka Voltas ka ek poorana fridge ka sauda 2500 rupye mein karwa diya..kasam se itane salon mein woh fridge ek hi baar kharaab huyee hai..woh bhi kya usmein gas dalni parhi..
kabhi kabhar jub raat mein nind aati hai to apni raag malhar ched deta hai..fir humein karna kuch nahi hota jakar usse ek baar hilana hota hai...fir sab theek ho jata hai...
lekin iss beech putni ki taraf se kafi daant parh rehi hai kyon na isse bech dete...aur kisht par ek naya fridge le lete hain double door wala...lekin mein bhi hoon ziddi..iss fridge ko ksaise chorh doon..jo itane saal se mere saath wafa kar reha hai...bhale hi market mein naye naye fridge aa gaye hoan lekin mein isko nahi bechne wala...
paani peene ke liye maine waise bhi Punjab university ke paas se ek mitti ka gharha(pitcher) khareed liya hai...usmein jo paani ka swad mil reha hai...mitti ki khushbu ke saath woh kahan..
Lekin jub bhi naya fridge dekhta hoon to dil mein ek hi baat rehti hai kitna achha hai mera fridge... ((lekin ek baat apko secret buta deta hoon apke dotcom par agar kisi ko meri fridge mein interest ho to zaroor batayein)
दोस्तों
छद्म नाम से न लिखें । आप ध्यान दें । ठीक नहीं है । यह ब्लागिंग के लिए भी नुकसान है । कि किसी की नकल यहां की जा रही है । इस टिप्पणी के ठीक ऊपर की एक टिप्पणी हटा दी गई है । प्लीज ऐसा मत कीजिए । क्या आप हमारे मौजूदा सहयोगी हैं या रह चुके हैं । स्मार्ट लगते हैं । मत कर भाई ।
रवीश भाई
आप तो छुपे रत्न निकले, कस्बा अच्छा है जमें रहिए, कृष्ण मोहन से कभी-कभी बतंगड़ हो जाती है.अगर दिल्ली आया तो बिना मिले नहीं लौटूँगा। कस्बा जिंदाबाद
kya LIKHIYE HO ravish bhai , likhte achha hain ,MAJAA A GAYA . KHUS KAR DEEL HAMAREE TABIYAT . YEH TO EKDUM SACCHE PATRAKARITA KEE PEHCHAAN HAI BIRADAR.
kya LIKHIYE HO ravish bhai , likhte achha hain ,MAJAA A GAYA . KHUS KAR DEEL HAMAREE TABIYAT . YEH TO EKDUM SACCHE PATRAKARITA KEE PEHCHAAN HAI BIRADAR.
kya khoob kaha hai...jin logon ne fridge na hone ke din dekhe hain...wohi iski ehmiyat samajh sakte hain..mujhe bhi yaad hai, kis tarha fridge par haath rakhkar, ya phone ka reciever hath main lekar, bade shauq se photo khichwate the...Lekin yaqin maniye..mere kamre main aaj AC hai, lekin usi kamre main ek choti si surahi bhi rakhi hai..paani abhi bhi uska peeti hoon..fridge ka nahin...
मजा आ गया रवीश भाई। लगा जैसे कोई दिल को छू जाने वाली कविता पढ़ रहा हूं। फ्रिज के बहाने आपने तो एक पूरी पीढ़ी के सामाजिक, सांस्कृतिक एवं मानसिक बदलाव का बयां कर दिया। पढ़ वैसे ही लग रहा है जैसे बहुत दिनों बाद, बारिश में भीगें हो। या बहुत दिनों बाद कोई अच्छा संगीत सुना हो। या बहुत दिन बाद अपने किसी बहुत पुराने दोस्त से मिल गए हों। टीवी की आपाधापी में भी आपने अपने भीतर के रचनाकार को बचाए रखा है। उम्मीद है आप यो ही लिखते रहेंगे और हिंदी ब्लागिंग को एक दिशा देते रहेंगे।
subhashmaurya@gmail.com
वाह साहब, क्या बढ़िया फ्रिज आया आपके यहाँ। उपभोगतावाद की "तुम्हारी कमीज़ मेरी कमीज़ से सफेद कैसे" वाली तर्ज को भी आपने बातों बातों में समेट लिया। हमारे यहाँ भी लगभग उसी काल में फ्रिज देवता का प्रवेश हुआ था। ठंडे पानी के अतिरिक्त रूहाफ्ज़ा तथा बर्फ भी उसके प्रारंभिक किराएदारों में रहे। आजकल तो फ्रोज़ेन पराठे तथा रोटियों के साथ महीनों पहले कटी हुई सब्जि़यों नें यहाँ डेरा डाल रखा है। समय के साथ फ्रीज़र का आकार बढ़ता गया तथा चीज़ों का बासीपन भी।
इधर पता चला कि आपको पुरुस्कार तथा सम्मान प्राप्त हुआ है, जानकर हर्ष हुआ। हमारी शुभकामनाएँ।
रविश जी
फ्रिज का चित्रण कर आपने वो शुरूआती दिन याद दिला दिए जिसे हम काफी पीछे छोड़ आए हैं। लेकिन आज कि तस्वीर और है आज फ्रिज की अहमियत कम और खाने के चीजों की अहमियत ज्यादा हो गई है। इससे भी ज्यादा ये कि वो फ्रिज किसके यहां पर है। इस लेख से मुझे मेरे गांव की याद आगई... जब पहली बार 1989 में फ्रिज लिया था। घर में त्यौहार जैसा माहौल था। लेकिन आज वो फ्रिज कबाड़ में पड़ा है। जिसकी कोई देखरेख नहीं है। उस समय जो लोग देखने आए थे। वो बुढ़े हो चुके है। औऱ कुछ तो भगवान को प्यारे भी हो गए। जो लोग बचे है वो उस को अब देखने तक को राजी नहीं .. रवि जी आपके शब्द सफेद रंग का फ्रिज... ये सफेद रंग कब मुझे छोड़ेगा।... रविश जी बाते है बातों का क्या....
रवीश जी, साधुवाद,फ्रिज़ की कहानी पढ़ी। वाकई अच्छा लगा। हमारे घर में भी फ्रिज़ आया था बहुत पहले..संवत् याद नहीं। लेकिन गौरव है कि बिहार से हूं..कस्बे से हूं तो फ्रिज़ का एक बेहतर इस्तेमाल हमारे घर में होता था। यकीन है कि कहीं ऐसा नहीं होता होगा। सोचता हूं फ्रिज़ के इस इस्तेमाल को पेटेंट करवा लूं। मतलब, बिहार में बिजली की क्या स्थिति है आपको पता ही है, सो आखिरकार हमने उसे किताब रखने की आलमारी में बदल दिया। कभी-कभार कपड़े भी रख देते थे।
सादर,
मंजीत, डीडी न्यूज़
WONDERFUL BLOG. i will come back to read ur posts, but the best thing was the Nusrat qUAwalli that went into my ears the moment i opened your blog..
Beautifully written , ye sab purane blogs kabhi parne ka mauka nahi Laga .. Maza aa gaya aaj itne sare blogs par liye .. Bahar ho rahe snowfall ka shukriya , time to mila
रविश जी मेरे घर मे फ्रिज़ नहीं है, पर मेरे यहाँ जब भी फ्रिज़ आएगा दृश्य कुछ आपके लेख जैसा ही होगा. आज इलेक्शन के परिणाम के बाद कार्यालय में आवेदकों की संख्या नग्न है, तो आपके पुराने और पसंदीदा लेख पढ़ कर खुशी हुई. धन्यवाद !
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